Pakistan: सिविल बगावत की स्याह काली परछाईंयों से घिरी पाकिस्तानी सेना

Pakistan: 9 मई को इस्लामाबाद उच्च न्यायालय के भीतर पूर्व प्रधान मंत्री इमरान खान (Imran Khan) की नाटकीय गिरफ्तारी की वज़ह से पूरे पाकिस्तान में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए। पहली बार पाकिस्तान तहरीक ए-इंसाफ (Pakistan Tehreek-e-Insaf) के कार्यकर्ताओं समेत हिंसक भीड़ ने खैबर पख्तूनख्वा (केपीके), पंजाब, बलूचिस्तान और पाकिस्तान के बड़े शहरों में सेना और अर्धसैनिक बलों की इमारतों पर हमला किया। साल 1971 में बांग्लादेश की मुक्ति, सैन्य तख्तापलट या यहां तक कि बेनजीर भुट्टो (Benazir Bhutto) जैसे लोकप्रिय नेताओं की हत्या के बाद भी सेना को निशाना नहीं बनाया गया था। मौजूदा हालातों को देखकर लगता है कि जनता के मन से सेना का डर पूरी तरह उड़न छू हो चुका है

पाकिस्तान में कुछ साफतौर पर बदल रहा है। कुछ लोगों के मन के किसी कोने में पाकिस्तान स्प्रिंग की अटकलें (Speculations of Pakistan Spring) लगती दिख रही है। क्या ये असल में पाकिस्तानी लोगों की बगावत है? क्या ये प्रकरण पाकिस्तान की नियति को बदलने में कामयाब होगा? इन सवालों को लेकर कई अन्तर्राष्ट्रीय मामलों के जानकारों के मन में सवाल सुलग रहे है।  असल में मौजूदा हालत पाकिस्तान की कड़ी ज़मीनी हकीकत का फायदा उठा सकते हैं, जिसका इस्लामाबाद (Islamabad) आज सामना कर रहा है। आर्थिक संकट और अफगानिस्तान (Afghanistan) में मानवीय संकट के साथ-साथ पाकिस्तान में होने वाली घटनायें भारी चिंता का सब़ब है, यहीं बातें पाकिस्तान स्प्रिंग की परिकल्पनाओं पर फुल स्टॉप लगाती है।

कई लोगों का मानना है कि इस तरह की खुली दुश्मनी के सामने पाकिस्तानी सेना (Pakistani Army) एकजुट होकर खड़ी होगी। कुछ लोगों का ये भी मानना है कि अतीत में सेना के संरक्षण का फायदा उठा चुके इमरान खान जनता के बीच सेना विरोधी भावना का दोहन करके अवसरवादी और विनाशकारी बन गये हैं। उनका तर्क है कि सेना पाकिस्तान के वजूद के साथ गोंद के मानिंद चिपकी रहेगी। जो कि देश को एक साथ रखती है और अगर खान के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाती है तो अराजकता खत्म हो जायेगी।

हालाँकि पाकिस्तान के भीतर गतिशील मंथन भी उसकी सीमाओं से परे भू-राजनीतिक वास्तविकता का प्रतिबिंब है। सबसे पहले और सबसे अहम अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद से पाकिस्तानी सेना की घेराबंदी की जा रही है। मजबूत तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) और बलूच अलगाववादी गुटों ने पिछले साल सशस्त्र बलों के खिलाफ 850 से ज्यादा हमले किये। इस साल केपीके, बलूचिस्तान और बड़े शहरों में हर दिन औसतन तीन हमले दर्ज किये गये हैं। इन हमलों में सैकड़ों पुलिसकर्मी, अर्धसैनिक बल के जवान और सेना के वरिष्ठ अधिकारी मारे गये हैं। पाकिस्तानी सेना का ऑपरेशन ज़र्ब-ए-अज़्ब (Operation Zarb-e-Azb) लगातार जारी है लेकिन राहत के कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं। टीटीपी बलूचिस्तान और पंजाब में अपने पैर पसार रहा है।

अफगानिस्तान सीमा पर तालिबान के साथ लगातार संघर्ष की जानकारी रहे सहे सामने आती रहती है। काबुल में चीनी दूतावास और पाकिस्तानी दूतावास पिछले साल गंभीर हमले की चपेट में आ गये थे। तालिबान को पाकिस्तान के रक्षा मंत्री की बार-बार की धमकी कि वो टीटीपी से समर्थन वापस ले ले, लेकिन इस मांग को तालिबानी हुकूमत ने नजरअंदाज कर दिया। अफगानिस्तान में गहरी रणनीतिक गहराई का दावा करने वाली पाकिस्तानी सेना व्यावहारिक तौर पर दो जंगी मोर्चों पर जूझ रही है और ईरान की सीमा पर कड़ी नजर रख रही है। चालाक छद्म खेल खेल रही पाकिस्तानी सेना के नूर के लिये तालिबान बड़ा खतरा है। तालिबान ने पाकिस्तान की सुरक्षा गारंटर के तौर पर उसकी प्रतिष्ठा को बुरी तरह धूमिल कर दिया है।

सीपीईसी, केपीके और बलूचिस्तान (Balochistan) के लिये अहम दो प्रांत सुरक्षा बलों के लिये जंग का मैदान बन गये हैं। सीपीईसी को सेना के दृढ़ समर्थन ने इसे चीनी निवेश के खिलाफ बढ़ती सार्वजनिक नाराजगी के केंद्र में ला दिया है। ये भावना इतनी साफ है कि हाल ही में पाकिस्तान दौरे के बाद, चीनी विदेश मंत्री ने जोर देकर कहा कि कुछ ताकतों ने ये अफवाह गढ़ी है कि चीन ने पाकिस्तान में कर्ज जाल फैलाया है।

टीटीपी और बलूच गुटों के सोशल मीडिया अभियानों के अलावा खान के निष्कासन के बाद सड़कों पर लामबंदी ने सेना को खासा कमजोर बना दिया है। सेना आज राजनीतिक रूप से बेहद कमजोर है, साथ ही आंतरिक और बाहरी सुरक्षा चुनौतियों में गहराई से फंसी हुई है। ये केपीके और बलूचिस्तान में संचालन के मुद्दे पर बंटा हुआ प्रतीत होता है। टीटीपी के साथ बातचीत के कामयाब होने की संभावना नहीं है और अलग-थलग पड़े अलगाववादी बलूच गुटों (Separatist Baloch Groups) तक पहुंचने का कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है। ऐसा लगता है कि सेना के पास गंभीर प्रतिक्रिया को न्यौदा दिये बगैर राजनीतिक दुस्साहस में शामिल होने की क्षमता नहीं है।

ऐसा दिखायी दे रहा है कि खान को दूसरों के सामने नयी असलियत का आभास हो गया और सेना पर कब्जा करके अपने मंशा को आगे बढ़ाने के लिये अपनी ज़िन्दगी और गिरफ्तारी की कोशिशों समेत हाल के घटनाक्रमों का इस्तेमाल किया। सेना का घटता हुआ कद 9 मई को दिखाई दिया, जब प्रदर्शनकारी कुछ समझाने-बुझाने पर जीएचक्यू तक पहुंच गये। हिंसक भीड़ ने लाहौर में कॉर्प कमांडर के घर, एबटाबाद में पाकिस्तान सैन्य अकादमी, मियांवाली में वायु सेना के अड्डे और कई शहरों में सेना के गश्ती दल को निशाना बनाया।

इस बीच हिंसक भीड़ पर मुकदमा चलाने के लिये सैन्य अदालतों के दखल देने की बात कहीं जा रही है। माना जा रहा है कि इमरान खान को या तो जेल या लंदन जाने का विकल्प दिया जा रहा है, सत्तारूढ़ पीडीएम मौजूदा हालातों में किसी भी तरह का अप्रत्याशित कदम उठा सकती है। इस दरम्यान उच्च न्यायपालिका भी सक्रिय हो रही है। लड़ाई अभी शुरू हुई है और किसी के भी इस अंदरूनी जंग में जल्द जीतने की संभावना नहीं है। हालाँकि एक बड़ा सौदा आम लोगों, अमेरिका (America) और चीन जैसी वैश्विक शक्तियों और अफगानिस्तान की घटनाओं पर निर्भर हो सकता है।

सर्वोच्च न्यायालय की ओर से इमरान ख़ान की रिहाई और उनकी इस गुज़ारिश को देखते हुए कि सेना चुनावों को रोक रही है, ये मुमकिन है कि अंतर्राष्ट्रीय बल ये सुनिश्चित करने के लिये सैन्य दखल दे सकते हैं कि कहीं पाकिस्तान अस्थिर न हो जाए। अस्थिरता ये है कि अफगानिस्तान पाकिस्तान पर गहरा असर डाल रहा है और पाकिस्तान में अस्थिरता अफगानिस्तान को और अस्थिर कर सकती है। अफगानिस्तान-पाक क्षेत्र में बढ़ती अस्थिरता कुछ ही समय में खत्म हो सकती है, लेकिन इसके लिये दीर्घकालीन कारगर कदमों को अमली जामा पहनाना होगा।

सह-संस्थापक संपादक : राम अजोर

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