2024 की डगर पर Nitish Kumar, पूरी हो पायेगी सुशासन बाबू की महत्वाकांक्षायें?

नीतीश कुमार (Nitish Kumar) ने भाजपा से नाता क्यों तोड़ लिया? इसे दो बड़ी बातों से समझा जा सकता है- साल के 2025 विधानसभा चुनावों में भाजपा अपनी सरकार बनाकर जदयू (JDU) को बाहर का रास्ता दिखा सकती थी और और दूसरा कुमार की अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षायें जिसमें लंबे समय से अटका उनका प्रधानमंत्री बनने का सपना खासतौर से शामिल है।

ऐसा लगता है कि दूसरा कारण पहले से आगे निकल गया है, इस तथ्य के कारण कि कुमार का ये कदम आखिरकर उन्हें साल 2024 के चुनावों के लिये प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर पेश करता है।

लेकिन साल 2024 के लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी के खिलाफ खुद को खड़ा करना कुमार के लिये आसान नहीं होगा, अगर वो भाजपा विरोधी विपक्षी दलों को एक छतरी के नीचे लाने में कामयाब है तो भी उनकी राहें आसान नहीं हैं। कारण कई हैं, लेकिन इन सबके ऊपर नीतीश कुमार के कई सियासी यू-टर्न बड़ी बाधा है, जिससे विपक्ष पार्टियों हमेशा उन्हें शक भरी निगाहें से देखती रहती है।

जबकि राजद (RJD) ने तेजस्वी (Tejashwi Yadav) के साथ कुमार को “गले लगा लिया” ये कहते हुए कि जद (यू) के लिये हमेशा राष्ट्रीय हित प्राथमिक हैं। सबसे बड़े और अहम पहलू लालू की पार्टी या तेजस्वी यादव उन पर कितना भरोसा करते हैं, ये अभी भी यक्ष प्रश्न बना हुआ है।

इसका वज़ह न सिर्फ नीतीश कुमार द्वारा सत्ता के लिये कई उतार-चढ़ाव हैं, बल्कि साल 2017 का प्रकरण भी है जब वो लालू और उनके बेटे तत्कालीन डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव के खिलाफ लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के बीच राजद-जद (यू)-कांग्रेस महागठबंधन से बाहर हो गए थे।

नीतीश कुमार बिहार की राजनीति के पलटू राम हैं। उन्होंने एक बार फिर साबित कर दिया है कि वो सत्ता के लिये कुछ भी कर सकते हैं। लालू प्रसाद यादव (Lalu Prasad Yadav) ने कहा था कि- साल 2017 में जब नीतीश कुमार महागठबंधन से बाहर हो गये थे तो उनके पास न तो सिद्धांत हैं और न ही विचारधारा, बल्कि सिर्फ और सिर्फ सत्ता का लालच है। लालू के इस पांच साल पुराने बयान से आज भाजपा आत्मीयता महसूस कर रही होगी।

राजद का मुस्लिम-यादव आधार, कुर्मी, एमबीसी और महादलितों के बीच जद (यू) का समर्थन और कांग्रेस और भाकपा-माले के असर इस गठबंधन के किले को मजबूत बनाते है, जो कि सीधे तौर पर एनडीए को नुकसान पहुंचा सकते है।

जद (यू) के एनडीए से बाहर निकलने से बिहार में 2024 के लोकसभा चुनावों में लगभग 10-15 सीटों का नुकसान होगा, जहां गठबंधन ने 2019 में 40 में से 39 सीटों पर जीत हासिल की थी।

कुछ राजनीतिक पंड़ित मानते है कि नीतीश कुमार अखिल भारतीय छवि वाले नेता नहीं हैं, जो कि विपक्ष की सर्वसम्मति से प्रधानमंत्री पद उम्मीदवार बन सके। उनसे भी ज़्यादा आकांक्षी हैं जो उनसे ज़्यादा मनमौजी नेता हैं; सियासत के पुराने खिलाड़ी शरद पवार (Sharad Pawar) को भूलाया नहीं जा सकता है। केसीआर, ममता, अखिलेश, स्टालिन (Stalin) जैसे पीएम के युवा उम्मीदवार उनसे पहले ही इस कतार में खड़े दिखायी दे रहे है।

जद (यू), अपनी ओर से उम्मीदें पाली बैठी है कि अगर महागठबंधन के साथ गठबंधन 2024 में अच्छा करता है तो नीतीश भाजपा विरोधी विपक्ष के केंद्र के तौर पर उभर सकते हैं, जहां फिलहाल मौजूदा हालातों में विश्वसनीय चेहरों की कमी है, जो कि मोदी के करिश्मे का मुकाबला करने के लिये फिलहाल नाकाफी हैं।

नीतीश कुमार के रास्ते में एकमात्र बाधा पश्चिम बंगाल (West Bengal) की सीएम ममता बनर्जी (CM Mamata Banerjee) हो सकती हैं, जिनकी अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षायें हैं, लेकिन वो वामपंथियों और कांग्रेस (Congress) को भी नामंजूर होंगी।

भाजपा के लिये कुमार का जाना बड़ी हैरत की बात नहीं है और पार्टी को उनकी ‘योजना’ के बारे में साफतौर पर पता था, इसलिये भाजपायी नेतृत्व ने पुराने सहयोगी को शांत करने के लिये और किसी भी तरह क्षति से बचने की कोशिश नहीं की।

जानकारों का मानना है कि जद (यू) की तुलना में लगभग दोगुनी सीटें जीतने के बावजूद नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री के तौर पर नीतीश कुमार को आगे करना भाजपा के लिये भारी बेबसी से भरा फैसला था, क्योंकि भगवा पार्टी के पास ऐसा कोई चेहरा नहीं था, जो बिहार में नीतीश कुमार के सियासी कद की बराबरी कर सके।

भाजपा अब नीतीश को भ्रष्टाचार, कानून-व्यवस्था और साल 2020 के राज्य चुनावों में जनता के जनादेश के गलत इस्तेमाल जैसे मुद्दों को उछाल कर उनके वोटबैंक में सेंधमारी करने की कोशिश करेगी। भाजपा इस बात से अच्छी तरह वाकिफ थी कि वो नीतीश कुमार की अगुवाई में आगे नहीं बढ़ेगी और अब वो सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ सकती है।

सह-संस्थापक संपादक : राम अजोर

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