Wrestlers Protest: बृजभूषण शरण सिंह को बचाने के चक्कर में जाट अस्मिता और पॉलिटिकल माइलेज से समझौता करेगी भाजपा?

Wrestlers Protest: जब कथित यौन उत्पीड़न के आरोपों को लेकर भारतीय कुश्ती महासंघ (डब्ल्यूएफआई) के अध्यक्ष और भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह (MP Brij Bhushan Sharan Singh) के खिलाफ पहली बार विरोध शुरू हुआ तो इसे हरियाणा के पहलवानों तक ही सीमित मुद्दे के तौर पर देखा गया। प्रदर्शनकारी पहलवानों में ज्यादातर हरियाणा के जाट समुदाय (Jat Community) के पहलवान शामिल है। सतही तौर पर भाजपा इस मुद्दे को लेकर संजीदगी बरतती नहीं दिखी। सत्तारूढ़ भाजपा ने हरियाणा (Haryana) के ऐसे निर्वाचन क्षेत्र में अपनी पैठ बना रखी है, जो कि गैर-जाट निर्वाचन क्षेत्र है। इसी समीकरण की बुनियाद पर फिलहाल भाजपा हरियाणा में आगे बढ़ती दिख रही है, अगले साल चुनाव होने हैं।

बृज भूषण के खिलाफ पहलवानों की ओर लगाये गये सनसनीखेज इल्ज़ामों की बारीकियों के साथ राज्य और केंद्र की भाजपा सरकार पर कार्रवाई करने का दबाव काफी ज्यादा बढ़ता दिख रहा है, और पश्चिमी उत्तर प्रदेश (Western Uttar Pradesh) में जाट बहुल इलाकों और राजस्थान (Rajasthan) में पहलवानों के मुद्दों की गूंज लंबे समय तक सुनायी देगी, खासतौर से हरियाणा और राजस्थान विधानसभा चुनावों में।

केंद्र ने अब पहलवानों को तुरन्त पुलिस कार्रवाई का आश्वासन देने के साथ-साथ बृजभूषण और उनके परिवार को डब्ल्यूएफआई (WFI) से बाहर करने का वादा करके कुछ हद तक डैमेज कंट्रोल करने की कोशिश की है। खास बात ये है कि जिस अंदाज़ में 8-9 जून के कई टीवी चैनलों पर इस मुद्दे से जुड़े डिबेट्स का प्रसारण किया गया, उसके कॉन्टेंट एनालिसिस, नैरेटिव एंगल और पर्सपेक्टिव को देखकर साफ लगता है कि आने वाले दिन बृजभूषण के लिये बड़ी मुसीबत का सब़ब बन सकते है। चैनलों का रूख़ साफतौर पर बता रहा है कि एक सांसद को बचाने के लिये पीएम मोदी (PM Modi) आने वाले विधानसभा चुनावों में पार्टी के सियासी कद की राजनीतिक बलि नहीं दे सकते है।

ऐसा इसलिये कहा जा सकता है कि जो टीवी चैनल कल तक बृजभूषण के पक्ष और पहलवान के खिलाफ अपने अंदाज़ में नैरेटिव पेश कर रहे थे, उनका रवैया एकदम से यू-टर्न वाला होता दिखा।

बहरहाल भाजपा को ये अहसास है कि वो हरियाणा में जाट फैक्टर को किसी भी कीमत पर नजरअंदाज कर सकती है, लेकिन यूपी में उनके बीच उसके (जाट) समर्थन का आधार पहले ही काफी कमजोर पड़ चुका है, जो कि लोकसभा चुनावों में भाजपा की सीधे और तीखे अंदाज़ में भारी पड़ने वाला है। इसमें कोई दोराय नहीं है कि यादव फैक्टर को नकारने के लिये जाटों का इस्तेमाल करके बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में सियासी नफ़ा कमाया था।

साल 2022 के विधानसभा चुनावों के अलावा जहां जाट-आधारित रालोद ने दुबारा अपनी धमक दिखाते हुए आठ सीटों पर जीत हासिल की। हाल ही में जाट गढ़ माने जाने वाले जिलों में नगर पंचायत और नगर पालिका अध्यक्षों के पदों के लिए हुए चुनावों में रालोद (RLD) और उसकी सहयोगी समाजवादी पार्टी (SP) दोनों ने अपनी बेहतरीन साख का प्रदर्शन किया।

वहीं बीजेपी ने उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन नहीं किया। प्रदेश अध्यक्ष भूपेंद्र चौधरी (खुद जाट, मुरादाबाद) और अन्य जाट नेताओं जैसे संजीव बालियान (मुजफ्फरनगर) और सत्यपाल सिंह (बागपत) के जिलों में भी ये पैटर्न देखा गया। पार्टी ने जाट बहुल जिलों में 56 नगरपालिका अध्यक्ष सीटों में से सिर्फ 20 और 124 नगर पंचायत अध्यक्ष सीटों में से 34 सीटें जीतीं।

जब बीजेपी 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले ज्यादा से ज्यादा सीटें बटोरने की कोशिश कर रही है, ऐसे में हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आ रही ये खबर पार्टी के लिये बड़ी चिंता का सब़ब है। यूपी में जाट समुदाय की धमक पश्चिमी गन्ना बेल्ट में है, जहां वो सूबे के सबसे अमीर किसानों में शुमार है। इस समुदाय का सीधा सीधा दखल 40 विधानसभा सीटों पर है। सीधे शब्दों में कहे तो प्रदर्शनकारी पहलवानों के आक्रोश का असर 40 लोकसभा सीटों और लगभग 160 विधानसभा सीटों पर होगा, भाजपा इस सियासी धोबी पछाड़ दांव के लिये कितनी तैयार है, ये देखने वाली बात होगी।


साल 2014 से पहले यादव और कुर्मी (Yadav and Kurmi) जैसे खेती किसानी करने वाले समुदाय के उभार ने कुछ हद तक जाटों के दबदबे को काम करने का काम किया है। जिसके चलते दूसरे दलों और गठबंधन पर निर्भर लड़खड़ाती रालोद को कुछ हद तक चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। जहां उनका राजनीतिक प्रतिनिधित्व की हद तक थमा है।

पश्चिम यूपी में साल 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बाद ये तस्वीर बदल गयी, जिसमें बड़े पैमाने पर जाट और मुस्लिम शामिल थे। साल 2014 के लोकसभा चुनावों में और फिर 2019 में अजीत सिंह और जयंत चौधरी (Ajit Singh and Jayant Chowdhary) की रालोद पिता-पुत्र की जोड़ी भाजपा उम्मीदवारों से हार गयी।

साल 2017 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने 15 जाट उम्मीदवारों को मैदान में उतारा, जिनमें से 14 उम्मीदवार जीते। रालोद के पुराने गहरी सियासी जड़े जमाये जाट नेताओं का मुकाबला करने के लिये भाजपा ने संजीव बालियान (Sanjeev Balian) और सत्यपाल सिंह (सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी) जैसे नये चेहरे पर बड़ा दांव खेला और कामयाब रही।

हालांकि साल 2022 के विधानसभा चुनावों के समय तक जाट समर्थन बिखरता सा दिखा, मौजूदा वक्त में भाजपा के पास 10, रालोद के चार और सपा के तीन जाट विधायक हैं।

इतिहास के पन्नें पलटे तो सामने आता है कि जाटों का उत्तर भारत की राजनीति में खासा असर और दबदबा रहा है। सियासी गलियारों में इसके लिये एक शब्द इस्तेमाल होता है, अजगर को साधो यानि कि अ-अहीर, ज-जाट, ग-गुर्जर और र-राजपूत इन सभी को लेकर चलने से सियासी कामयाबी पायी जा सकती है। इसी क्रम में 1950 और 60 के दशक में देवी लाल और रणबीर सिंह हुड्डा (हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ कांग्रेस नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा के पिता) (अविभाजित) पंजाब के अहम जाट नेता थे। राजस्थान में नाथूराम मिर्धा (Nathuram Mirdha) थे और यूपी में चौधरी चरण सिंह (अजीत सिंह के पिता) इस फेहरिस्त में आने वाले कद्दावर नेता थे।

साल 1966 में हरियाणा के वजूद में आने के बाद, नये नवेले सूबे में 25 फीसदी से ज्यादा आबादी वाले जाटों के साथ बंसीलाल जैसे नेताओं का उभार देखा गया। उत्तर प्रदेश में मई 1987 में उनके निधन तक चरण सिंह (Charan Singh) जाट समुदाय के बड़े नेता थे, जो सभी जातियों के साथ-साथ मुसलमानों के बीच में भी बड़े चेहरे थे। वो दो बार यूपी के मुख्यमंत्री बने, एक बार जनसंघ समेत बहुदलीय गठबंधन के हिस्से के तौर पर और दूसरी बार इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) की अगुवाई वाले कांग्रेस गुट के साथ गठबंधन में। उन्होंने उप प्रधान मंत्री के तौर पर भी काम किया और 1979-80 में छह महीने से भी कम वक्त के लिये प्रधान मंत्री पद पर काबिज रहे।

खास बात ये रही कि उनकी करिश्माई सियासी शख्सियत के चलते किसान खासतौर से जाट कांग्रेस और भाजपा (तत्कालीन जनसंघ) के राजनीतिक तिलिस्म से दूर होते चले गये। हालांकि चरण सिंह के बाद यूपी में जाटों का कभी कोई सीएम नहीं रहा।

चरण सिंह के बाद साल 1989 में वीपी सिंह की अगुवाई वाली राष्ट्रीय मोर्चा सरकार में जाटों के लिये सबसे बड़ा क्षण था। उन्हें देवी लाल की नेतृत्व वाले जाट समुदाय का पूरा समर्थन हासिल था, जो बाद में प्रधान मंत्री वीपी सिंह के डिप्टी बन गये। अजीत सिंह उनके मंत्रिमंडल का हिस्सा थे। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ (Vice President Jagdeep Dhankhar) और भाजपा के बागी सत्यपाल मलिक जैसे मौजूदा दिग्गज़ जाट चेहरे भी वी पी सिंह के साथ थे।

हालांकि बाद में देवीलाल और वीपी सिंह (Devilal and VP Singh) के बीच वैचारिक मतभेद पैदा हो गये और उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल से हटाये जाने के बाद देवीलाल ने किसानों के बीच समर्थन जुटाने और अपनी खोया राजनीतिक चमक को हासिल करने की कोशिश की। इस राजनीतिक उठापटक के बीच मंडल आयोग को अमली जामा पहनाने का बड़ा ऐलान हुआ। इस कवायद ने कुछ हद तक सामाजिक गठबंधन को तोड़ने में मदद की क्योंकि जाट केंद्रीय ओबीसी सूची (Central OBC List) में नहीं थे। जैसे-जैसे वो विरोध में उतरे बाकी के ओबीसी समुदाय से उनकी दूरी बढ़ती गयी।

सामाजिक रूप से जाटों को यूपी, राजस्थान, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में ओबीसी के तौर पर वर्गीकृत किया गया है, लेकिन केंद्रीय सूची में उन्हें कोई जगह नहीं दी गयी। राजस्थान के दो जिले भरतपुर और धौलपुर (Bharatpur and Dhaulpur) इस मामले में अपवाद है, जहां जाट ओबीसी की सेन्ट्रल लिस्ट में शुमार है।

हरियाणा में देवीलाल (Devilal) की विरासत इनेलो ने संभाली हुई है। पार्टी अब परिवार के दो धड़ों में बंट गयी है। जहां इनेलो ने खुद पिछले विधानसभा चुनावों में बहुत खराब प्रदर्शन किया, वहीं दूसरे गुट जननायक जनता पार्टी ने चुनाव के बाद भाजपा के साथ गठबंधन किया और हरियाणा में सत्ता में काबिज़ है।

इस बीच यूपी में मंडल के बाद हिंदुत्व की राजनीति ने दस्तक दी, सूबे की चौखट पर हिंदुत्ववादी एजेंडे का भगवा रंग अपना जलवा बिखरेने के लिये पूरी तरह तैयार था। इसी रंग में रंगकर यूपी का सियासी नक्शा बदल गया और प्रदेश में राजनीतिक से जाट हाशिये पर चले गये। लंबे समय तक राज्य में जाटों ने उस वक्त की सत्ताधारी पार्टी के साथ अपना बहुत कुछ झोंक दिया। चरण सिंह की ओर से तैयार किये गये राजनीतिक आधार का इस्तेमाल सबसे पहले सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव और मुजफ्फरनगर दंगों के बाद भाजपा ने किया।

मौजूदा हालातों में प्रदर्शनकारी जाटों का प्रदर्शन सीधे तौर पर जाट अस्मिता से जुड़ा दिख रहा है। भले पहलवान खुले तौर पर ये ना बोल रहे हो, पर जिस अंदाज़ में सर्वखाप पंचायत (Sarvakhap Panchayat), भाकियू, विपक्षी पार्टियां और सत्यपाल मलिक (Satyapal Malik) इससे आंदोलन से जुड़े उससे साफ है कि मामला यौन उत्पीड़न और छेड़छाड़ से कहीं ज्यादा जाट अस्मिता से जुड़ा हुआ है। ऐसे में पीएम मोदी का बलि तो देनी ही होगी या ता ब्रजभूषण शरणसिंह नपेगें या फिर जाट एकता आगामी विधानसभा चुनावों में अपनी नाराजगी बैलेट बॉक्स में बंद कर देगी।


सह-संस्थापक संपादक ट्रेंडी न्यूज नेटवर्क : राम अजोर

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