PM Modi’s US State Visit: मौजूदा ग्लोबल नैरेटिव के चलते वाशिंगटन को नई दिल्ली की ज्यादा दरकार

PM Modi’s US State Visit: व्हाइट हाउस के सामने पुतिन से लेकर ट्रंप और शी जिनपिंग से लेकर किम जोंग-उन तक कई चुनौतियां हैं। लेकिन ओवल ऑफिस (Oval Office) की चिंता के बीच भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का करिश्मा है। पिछले महीने जापान (Japan) में क्वाड की बैठक के दौरान बाइडेन और मोदी के बीच गर्मजोशी का दौर अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया में छाया रहा। भू-राजनीतिक अस्थिरता से भरी तेजी से बिखरती दुनिया में, मोदी और बिडेन दोनों ने अपने मुल्कों को करीब लाने की जो साझा रजामंदी दिखायी है, उस पर पूरी दुनिया की निगाहें टिकी हुई है।

ये वाशिंगटन (Washington) ही है जिसे नई दिल्ली को मजबूती से गले लगाने की दरकार है। धूमधाम से भरे पीएम मोदी के अमेरिका दौरे की जो राह दिख रही है, उससे साफ हो जाता है कि दोनों मुल्कों के रिश्तों में एक नया संस्करण जुड़ने वाला है। नई दिल्ली और वाशिंगटन सम्मान और साझा उद्देश्यों की साझेदारी बनाने के लिये पूरी तरह तैयार है।

अब वक्त की रूख बदल गया है। आज नई दिल्ली (New Delhi) का कद ऐसा है कि अमेरिका चाहता है कि वो दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित सुरक्षा गठबंधन यानी NATO प्लस का हिस्सा बने, लेकिन भारत का जवाब फौरन था: थैंक्स, बट नो थैंक्स। मोदी प्रशासन को लगता है कि पश्चिमी सैन्य शक्तियों के खेमे में शामिल होने से उसकी स्वतंत्र राजनयिक कवायदों में भारी बाधा आयेगी।

कारगिल युद्ध (Kargil War) और बांग्लादेश मुक्ति अभियान (Bangladesh Liberation Campaign) ने भारत-अमेरिका संबंधों को आकार देने में अहम भूमिका निभायी है। साल 1999 में जब पाकिस्तान के सैनिकों ने ऊंचाई वाले ठिकानों पर छिपकर सामरिक फायदा उठाते हुए भारतीय सेना (Indian Army) पर भारी हथियारों से गोलीबारी की तो भारतीय सशस्त्र बलों को जंगी मैदान के जीपीएस डेटा की दरकार थी, जो कि उस वक्त अमेरिकी ही मुहैया करवा सकते थे, लेकिन उन्होनें इससे साफ इंकार कर दिया। एक चौथाई सदी बाद अब भारत आत्मनिर्भर है। भारत के पास स्वदेशी तौर पर विकसित जीपीएस एनएवीआईसी (GPS NAVIC) है। इसके साथ ही भारत ने बाधा को अवसर में बदल दिया।

कई पश्चिमी आलोचक रूस-यूक्रेन युद्ध (Russia-Ukraine War) पर नई दिल्ली के नपे तुले रुख पर सवाल उठाते हैं। आज का दौर जंग का नहीं होना चाहिए, यही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन (President Vladimir Putin) को साफ पैगाम है। लेकिन पश्चिम जंगी ताकतें रूस की ओर से भारत में होने वाले तेल के आयात से खुश नहीं है।

साल 1971 में जब पूर्वी पाकिस्तान (मौजूदा बांग्लादेश) में पाकिस्तान की सेना पर हमले हो रहे थे, तब अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन (President Richard Nixon) ने अमेरिका के सातवें जंगी बेड़े को बंगाल की खाड़ी की ओर रवाना होने का फरमान दिया, इस जंगी बेडे की अगुवाई परमाणु ऊर्जा से चलने वाला विमानवाहक पोत एंटरप्राइज़ (Aircraft Carrier Enterprise) कर रहा था। मंशा साफ थी कि अमेरिका इस्लामाबाद (Islamabad) का समर्थन में मजबूती से खड़ा होकर, नई दिल्ली पर दबाव बनाना चाहता था। इस बीच भारत के हमेशा से करीबी रहने वाले रूस ने अहम भूमिका निभायी और नई दिल्ली के पक्ष में परमाणु हथियारों से लैस परमाणु पन्नडुब्बियों को मदद के लिये आगे कर दिया। क्रेमलिन (Kremlin) अमेरिकी जुझारूपन के खिलाफ खड़ा हुआ और पाकिस्तान की मदद करने के अमेरिकी कदम को नाकाम कर दिया।

आज अमेरिका दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की तारीफ कर रहा है। जब बाइडेन प्रशासन भारत के साथ उन्नत तकनीकों को साझा करने की बढ़ती रजामंदी दिखाता है तो उसके दिल में अपने हित समाये हुए हैं। ये द्विपक्षीय संबंधों में एक अहम मोड़ है। संयुक्त राज्य अमेरिका भारत की बढ़ती आर्थिक और कूटनीतिक क्षमता को बड़े रणनीतिक सहयोगी के तौर पर पहचानता है, जो कि चीनियों के खिलाफ मजबूत सुरक्षा कवच बन सकता है।

दोनों देशों के बीच शक्ति और प्रभाव का संतुलन वक्त के साथ बदल गया है, खासकर इक्कीसवीं सदी में। चीन की बढ़ती मुखरता और आक्रामकता से भारत-प्रशांत क्षेत्र की सुरक्षा में भारत अग्रणी वैश्विक शक्ति और संयुक्त राज्य अमेरिका के लिये बड़े भागीदार के तौर पर उभरा है। भारत ने अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में अपनी स्वायत्तता और दबदबा बढ़ाने के लिये रूस, जापान, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस और इज़राइल (France and Israel) जैसे अन्य देशों के साथ अपनी विदेश नीति और रणनीतिक साझेदारी में भी विविधता लाई है।

पिछले एक दशक में भारत-अमेरिका रक्षा संबंधों में कई बड़े बदलावों का दौर देखा गया है। दोनों मुल्कों के बीच ऐसा भी दौर देखा गया है, जब द्विपक्षीय रिश्तों पर अलगाव और संदेह की स्याह काली छाप थी। शीत युद्ध के दौरान भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाई, जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका ने सोवियत संघ के खिलाफ पाकिस्तान और चीन के साथ गठबंधन किया। परमाणु प्रसार, मानवाधिकार और क्षेत्रीय संघर्ष जैसे मुद्दों पर भी दोनों देशों के बीच लंबे समय तक मतभेद रहे थे।

आज संयुक्त राज्य अमेरिका ने भारत के साथ उन्नत तकनीकों को साझा करने की बढ़ती रजामंदी को जाहिर किया है। ये द्विपक्षीय संबंधों में अहम मोड़ है। संयुक्त राज्य अमेरिका रणनीतिक सहयोगी के तौर पर भारत की बढ़ती क्षमता को पहचानता है और तकनीकी सहयोग को बढ़ावा देने के लिये अपना हाथ बढ़ाया है। दोनों देशों ने कई ऐतिहासिक समझौतों पर हस्ताक्षर किये हैं। इनमें खासतौर से शामिल है, एक दूसरे की सैन्य सुविधाओं तक पहुँच और इस्तेमाल करने के लिये किया गया लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट (2016), सुरक्षित संचार और उच्च अंत प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण की सुविधा के लिये किया गया संचार संगतता और सुरक्षा समझौता (2018) और दोनों देशों के बीच भू-स्थानिक डेटा और इंटेलिजेंस को साझा करने की मंजूरी देने वाला बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट (2020)। दोनों देशों ने एआई, क्वांटम कंप्यूटिंग, जैव प्रौद्योगिकी, सेमीकंडक्टर, 6जी दूरसंचार और साइबर सुरक्षा जैसी अत्याधुनिक तकनीकों पर मिलकर काम करने के लिये दोनों मुल्कों ने नई पहल शुरू की है।

प्रधान मंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा से न सिर्फ भारत-प्रशांत क्षेत्र के सामरिक बदलाव आयेगें बल्कि लोकतांत्रिक विश्व व्यवस्था के लिये साझा प्रतिबद्धता के कारण भी दोनों मुल्कों का एक दूसरे के करीब आना काफी स्वाभाविक है। दूसरी ओर भारत अपने आर्थिक, तकनीकी और सामाजिक विकास को बढ़ाने में अमेरिका के समर्थन और सहयोग से काफी फायदा सकता है।

इसके अलावा भारत वैश्विक स्तर पर दक्षिण एशिया (South Asia) के लिये बड़ी आवाज भी है, जो कि विकासशील दुनिया के लिये न्याय, समता और स्थिरता को काफी अहमियत देता है। अमेरिका और भारत अपने जैसे दूसरों कई और मुल्कों के लिये शांतिपूर्ण और समृद्ध दुनिया बनाने में स्वाभाविक सहयोगी और भागीदार हो सकते हैं।

सह-संस्थापक संपादक : राम अजोर

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