72 साल में चले अढ़ाई कोस ?

प्लासी की लड़ाई साल 1757 से लेकर 1947 तक 200 सालों के काले स्याह वक़्त के बाद गुलामी की बेड़ियां खुली। हिन्दुस्तान आजादी की हवा में खुली सांस ले रहा था। खेतों में हल चलाने वालों को, ईंट के भट्टे में ज़िन्दगी झोंकने वालों को और कोयले की काली खदानों में उम्मीदों की रोशनी ढूढ़ने वाली ज़मात को सपने संजोने का हक मिला। लोगों को लगने लगा कि अंग्रेजी प्रशासन की जिस चाबुक ने 200 सालों तक उनकी पीठ को छलनी किया है। वो अब और नहीं होगा। नयी हिन्दुस्तानी हुकूमत अब उनके प्रति ज़्यादा ज़वाबदेह होगी। हक़ के लिए अब धक्के खाने नहीं पड़ेगें। गोरे चले गये अब जनताना सरकार आयी है। हर किसी की सुनवाई होगी। लेकिन कुछ ही दिन बीते थे ये सोच हवा हो गयी। अंग्रेजों से मिली उधारी की प्रशासनिक व्यवस्था पर अब कालों का कब़्जा था। प्रशासन और प्रशासनिक अधिकारियों ने गांधी के रामराज्य के सपनों की झांकी 72 सालों में ऐसी बनायी कि इंसानियत भी शर्मसार होने लगी। सरकारी महकमें में जनता के जेब से तनख्वाह पाने हर शख्स खुद को जनता का मालिक समझने लगा गया। प्रशानिक व्यवस्था में काम करने वाले बाबू से लेकर चपरासी तक जीवन्त लोकतन्त्र में खुद को शंहशाह समझने लगे। 
72 सालों लेकर अब तक आम जनता खुद को ठगा महसूस कर रही है। युवा जो प्रशासनिक अधिकारी बनते है, यूपीएससी के इन्टरव्यूह पैनल देश सेवा करने का दम भरते है। ये बात अलग है कि इन्टरव्यूह पैनल में बैठे लोग ये जानते है कि सामने बैठा शख्स जो देश सेवा करने की बात कर रहा है, वो पूरी तरह से खोखली है। लेकिन इन्टरव्यूह पैनल की भी मजबूरी है उन्हें अच्छा-अच्छा सुनने की आदत है। बीच-बीच में थोड़ी बहुत व्यावहारिकता और यर्थाथ की तथ्यपरक बातों का भी छौंका लग जाता है। लेकिन जब इन्हीं युवाओं को जिले में या फिर कहीं ज़्वॉइनिंग मिलती है तो देश और देशसेवा जैसी चीज़े इनके व्यवहार से गुम (कुछ अपवादों को छोड़कर) हो जाती है। आम जनता से ज़्यादा इन लोकसेवकों का सरोकार दलालों, माफियाओं, लॉबिस्टों और भष्ट्र नेताओं से होता है। 
                                     यहाँ पर एक जीवन्त उदाहरण देना चाहूँगा। मेरा एक मित्र काफी सालों से सीजीएल-एसएससी परीक्षा की तैयारी में लगा हुआ है। उसका एक़्जाम क्लियर नहीं हो रहा था। मैनें उसे नसीहत देते हुए कहा कि, कुछ और क्यों नहीं देख लेते एक लंबा अर्सा परीक्षा देते-देते बीत गया है। उसने जवाब दिया कि, एक बार सरकारी नौकरी लग जाने दो। शादी में दहेज भी अच्छा मिलेगा और मज़े की नौकरी होगी। काम करो या ना करो अच्छी सैलरी आती रहेगी और टाइम-टू-टाइम से प्रमोशन भी होता रहेगा। अब सारी समस्या की जड़ यहीं छिपी हुई है। सरकार ने सभी सरकारी कर्मियों और लोकसेवकों को समय पर आने के लिए बॉयोमैट्रिक सिस्टम से बाध्य तो कर दिया लेकिन उनकी उत्पादकता का कोई हिसाब किताब नहीं लगाया। अगर सरकार प्रोडक्टिविटी ऑडिटिंग के आधार पर वेतन, प्रमोशन की व्यवस्था करे तो प्रशासन-व्यवस्था और सार्वजनिक संस्थानों में जनता की शिकायतों से जुड़ी कई समस्यायों की चुटकियों में खत्म किया जा सकता है। लेकिन ध्यान ये रखना होगा कि ये ऑडिटिंग किसी तटस्थ एजेंसी से करवायी जानी चाहिए। व्यवस्था द्वारा चरमराहट का सारा ठीकरा जनसंख्या के सिर फोड़ना गलत होगा। ये प्रशासनिक व्यवस्था का सदाबहार बहाना रहा है।
                                                                      आये दिन सोशल मीडिया पर ऐसे वीडियो और फोटो वायरल होते है जिन्हें देख आत्मा कांप उठे लेकिन सरकारी बाबुओं का कलेजा पत्थर का बना रहता है। आज ही का वाकया है। बिहार की पावन धरती से निकले महान गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह का इतंकाल हुआ और उनका पार्थिव शरीर एबुलेंस की राह देखता रहा। PMCH के अधिकारियों की उदासीनता का आलम तो देखिये जिस शख्स ने भारत का नाम अन्तर्राष्ट्रीय संस्थानों में रोशन किया उसके पार्थिव शरीर के साथ ऐसा बर्ताव। अगर उनके साथ ऐसा हुआ है तो देशभर में आम आदमी के साथ कैसा होता होगा। इसका अन्द़ाजा आसानी से लगाया जा सकता है। अखबारों की सुर्खियों और सोशल मीडिया से आयी तस्वीरों का एक बिंब आपके सामने रखता हूँ। शायद आप लोगों को आसानी से अन्द़ाजा हो जायेगा कि सार्वजनिक संस्थानों पर किस तरह से क्रूरता, निमर्मता, अमानवीयता और वहशीपन सवार है। एफआईआर कराने के लिए थानों के चक्कर काटता हुआ नाबालिग बलात्कार पीड़िता का बाप। पोस्टमॉटर्म रिपोर्ट के इंतजार में कंधे पर बच्चे की लाश ढ़ोता हुआ पिता। अपनी कटी हुई टांग के तकिये पर लेटा हुआ सरकारी अस्पताल का मरीज़। राशन कार्ड बनाने के लिए बाबू से मिन्नतें करती हुई महिला। बांस और कंबल से बने स्ट्रेचर पर प्रसव पीड़ा से तड़पती हुई महिला को कई किलोमीटर पैदल चलकर अस्पताल पहुँचाते हुए आदमी। बूढ़े और महिलाओं को दनादन थप्पड़ मारता वर्दी के नशे में धुत दरोगा। जिला अस्पताल में सर्जरी करवाता सफाईकर्मी। पत्नी की लाश को कंबल में लपेटकर 12 किलोमीटर पैदल चलता आदमी। परिजन की हत्या की शिकायत करने वाले का कॉलर खींचकर धक्का देता हुआ डीएम। किसान की जमीन भू-माफिया का देता लेखपाल। ये सारी तस्वीरें 21 वीं सदी के भारत की है। क्या इस तरह की चीज़े आप लोगों को झकझरोती नहीं है। अगर आप एक आम इंसान है तो ये तस्वीरें दिल दहलाने के लिए काफी है। 

                       अगर इन सबसे हताश होकर आम आदमी न्यायपालिका की शरण लेता है तो, वहाँ उसकी उम्र का बड़ा हिस्सा इंसाफ के इंतजार में ही निकल जाता है। न्यायपालिका भी न्यायिक दलालों से भरी हुई है। पेशकार को 100 रूपये देकर केस की तारीखें आगे बढ़वा दी जाती है। एडवोकेट लॉबी के दबाव में जजों को अपना फैसला तक बदलना पड़ा जाता है। ये बात बेहद गंभीर है कि जहाँ सरकारी योजनायें कारगर ढंग से नहीं पहुँच पाती है वहाँ पर कोका-कोला, मैगी और अन्य बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के उत्पाद जरूर पहुँच जाते है। मौजूदा प्रशासनिक ढ़ांचा जीवित लोकतन्त्र के लिए अभिशाप से ज़्यादा कुछ नहीं है। 
                                                          एक छोटे से किस्से के साथ पूरे लेख को विराम दूंगा। हमारी एक महिला सहकर्मी है। कई बड़े पत्रकारिता संस्थानों में सेवाओं दे चुकी है। उन्होनें बताया कि शुरूआती दिनों वो द हिन्दू की संपादकीय टीम का हिस्सा थी। किसी घेरलू कार्यक्रम में दौरान वे अपने गृहनगर गयी। उनका परिवार काफी रसूखदार था। कार्यक्रम के दौरान उनके एक रिश्तेदार मिले जो कि खुद बड़े नौकरशाह थे। उन्हें पता लगा कि वे पत्रकारिता के क्षेत्र में करियर बना रही है। उन्होनें उन्हें नसीहत देते हुए कहा कि क्या जर्नलिज़्म के चक्कर में पड़ी हुई हो। अभी उम्र है। सिविल सर्विसेज की तैयारी करो। एक बार सिलेक्शन हो गया तो फिर ज़िन्दगी भर आराम है। इन्होनें तपाक से ज़वाब दिया आप सीनियर ब्यूरोक्रेट है। आपने सिस्टम में रहते हुए कौन-सा ऐसा काम किया है जिससे देश की जीडीपी बढ़ गयी हो। उनके पास कोई जवाब नहीं था। सरकारी नौकरी मिलने के बाद आराम से ज़िन्दगी कटना ये ही देश के लिए भष्ट्राचार का सब़ब बन गया है। बिना काम किये जब हर महीने समय से वेतन आता रहे, समय से प्रमोशन मिलता रहे कौन काम करेगा। प्रोडक्टीविटी और आम जनता के प्रति संवदेनशीलता तो दूर की कौड़ी है। सारी समस्या का हल एक ही है व्यवस्था को आम जनता के प्रति उदार और संवेदनशील होना पड़ेगा। जनसेवकों की आराम की नौकरी वाली सोच के खिलाफ़ कोई पुख्ता इंतजमात करने होगें। अगली बार जब किसी सरकारी दफ़्तर में जायेगें तो आप सामने कुर्सी पर बैठे हुए बाबू के हाव-भाव पढ़ना क्या वो वास्तव में ही एक जनसेवक है या कोई और ?

        राम अजोर यादव
एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर एवं सह संपादक ट्रेन्डी न्यूज़
Leave a comment

This website uses cookies to improve your experience. We'll assume you're ok with this, but you can opt-out if you wish. Accept Read More