Vasudev Balwant Phadke; देश की आजादी के आदि क्रांतिकारी वासुदेव बलवंत फडके

Vasudev Balwant Phadke: वासुदेव बलवंत फडके (4 नवम्बर, 1845 – 17 फरवरी, 1883) भारत के स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारी थे जिन्हें आदि क्रांतिकारी कहा जाता है। जिनका केवल नाम लेने से युवकों में राष्ट्रभक्ति जागृत हो जाती थी, ऐसे थे वासुदेव बलवंत फडके। वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के आद्य क्रांतिकारी थे ।

स्वतंत्र भारत के इस मन्दिर की नींव में पड़े हुए असंख्य पत्थरों को कौन भुला सकता है? जो स्वयं स्वाहा हो गये किन्तु भारत के इस भव्य और स्वाभिमानी मंदिर की आधारशिला बन गये। ऐसे ही एक गुमनाम पत्थर के रूप में थे, बासुदेव बलवन्त फड़के, जिन्होंने 1857 की प्रथम संगठित महाक्रांति (First Organized Revolution) की विफलता के बाद आजादी के महासमर की पहली चिंगारी जलायी थी।

बासुदेव महाराष्ट्र के कालवा जिले के श्रीधर ग्राम में जन्मे थे। बासुदेव के पिता चाहते थे कि वो एक व्यापारी की दुकान पर दस रुपए मासिक वेतन की नौकरी कर लें, पढ़ाई छोड़ दें, लेकिन बासुदेव ने ये बात नहीं मानी और मुम्बई आ गये। वहाँ पर जी.आर.पी. में बीस रुपये मासिक की नौकरी करते हुए, अपनी पढ़ायी जारी रखी। 28 वर्ष की आयु में बासुदेव की पहली पत्नी के निधन के कारण दूसरा विवाह हुआ।

उन्हीं दिनों 1870 में महाराष्ट्र स्वदेशी आंदोलन के प्रमुख नेता न्यायमूर्ति रानाडे का मुम्बई में भाषण सुनकर बासुदेव प्रभावित हुए। 1871 में एक दिन सायंकाल वे कुछ गंभीर विचार में बैठे थे। तभी उनकी माताजी की तीव्र अस्वस्थता का तार उनको मिला, कि बासु! तुम तुरन्त आ जाओ अन्यथा माँ के दर्शन भी शायद न हो सकें। इस वेदनापूर्ण तार को पढ़कर अतीत की स्मृतियाँ मानस पटल पर आ गयीं और तार लेकर अंग्रेज अधिकारी (British Officer) के पास अवकाश का प्रार्थना पत्र देने गये, किन्तु अंग्रेज तो भारतीयों को अपमानित करने के लिए सतत् प्रयासरत रहते थे। उस अंग्रेज अधिकारी ने अवकाश नहीं दिया, किन्तु बासुदेव दूसरे दिन अपने गांव-चले गए। वहाँ पहुंचकर बासुदेव पर वज्राघात हुआ। जब उन्होंने देखा कि उनका मुंह देखे बिना तड़फते-तड़फते उनकी ममतामयी मां चल बसी। उन्होंने पांव छूकर रोते हुए माता से क्षमा मांगी, किन्तु ब्रिटिश शासन (British rule) के दुव्यर्वहार से उनका हृदय चीत्कार कर उठा।

उन्होंने पूरे महाराष्ट्र में घूम-घूमकर नवयुवकों से विचार-विमर्श किया, और उन्हें संगठित करने का प्रयास किया। लेकिन उन्हें नवयुवकों के व्यवहार से आशा की कोई किरण नहीं दिखायी पड़ी। कुछ दिनों बाद गोविन्द राव दावरे (Govind Rao Daware) तथा कुछ अन्य युवक उनके साथ खड़े हो गये। फिर भी कोई शक्तिशाली संगठन खड़ा होता नहीं दिखायी दिया। तब उन्होंने वनवासी जातियों की ओर नजर उठायी और सोचा आखिर भगवान श्रीराम ने भी तो वानरों और वनवासी समूहों को संगठित करके लंका पर विजय पायी थी। महाराणा प्रताप ने भी इन्हीं वनवासियों को ही संगठित करके अकबर को नाकों चने चबवा दिये थे। शिवाजी ने भी इन्हीं वनवासियों को स्वाभिमान की प्रेरणा देकर औरंगजेब को हिला दिया था।

भारत माता की सेवा के लिये बासुदेव ने नौकरी छोड़ दी, पत्नी को भूल गये और अपनी सेना बनाने लगे। रोमोशी जनजाति के तमाम विश्वस्त, सिद्धहस्त लोग इस लड़ाकू सेना में शामिल हो गये।

महाराष्ट्र के सात जिलों में बासुदेव की सेना का जबर्दस्त प्रभाव फैल चुका था। अंग्रेज अफसर डर गये थे। इस कारण एक दिन बैठक करने के लिये विश्राम बाग में इकट्ठा थे। वहाँ पर एक सरकारी इमारत में बैठक चल रही थी। 13 मई 1879 को रात 12 बजे बासुदेव अपने साथियों सहित वहाँ आ गये, अंग्रेज अफसरों को मारा तथा भवन को आग लगा दी। उसके बाद अंग्रेज सरकार ने उन्हें जिन्दा या मुर्दा पकड़ने पर पचास हजार रुपये का इनाम घोषित किया। लेकिन दूसरे ही दिन मुम्बई में बासुदेव के हस्ताक्षर से इश्तहार लगा दिये गये कि जो अंग्रेज अफसर रिचर्ड (British officer Richard) का सिर काटकर लायेगा उसे 75 हजार रुपये का इनाम दिया जाएगा।

अंग्रेज अफसर इससे बौखला गये। आखिरकर एक दिन बासुदेव अपने एक मित्र के घर से गिरफ्तार कर लिये गये और 31 अगस्त 1879 को ताउम्र की सजा सुनायी गयी। बचाव में बासुदेब बलवन्त फड़के ने कहा कि भारतवासी आज मृत्यु के मुहाने पर खड़े हैं, गुलामी की इस लज्जापूर्ण हालातों से मर जाना ही बेहतर है, मैं भगवान या सरकार से नहीं डरता क्योंकि मैंने कोई पाप नहीं किया है। दधीचि की तरह मैं अपने जीवन का बलिदान देकर अगर भारत की गुलामी की पीड़ा को थोड़ा भी कम कर सका तो अपने को धन्य समझूंगा।

आजीवन कारावास (Life imprisonment) के जेल जीवन में बासुदेव ने सोचा कि क्या मेरा जन्म जेल में सड़ने के लिये हुआ है? एक रात कड़े पहरे के बीच जेल की दीवार फांदकर भाग गये। शक्तिहीनता की शारीरिक स्थिति में भी 17 मील तक बासुदेव भागते रहे। पीछा कर रही पुलिस से वे बच नहीं पाये और पुन: जेल भेज दिये गये। इस बार जेल के अधिकारी ने कठोर यातनायें दीं। नतीज़न 17 फरवरी, 1883 ई. को अदन की जेल में वीर बासुदेव बलवन्त फड़के ने अपना शरीर छोड़ दिया। उनकी मृत्यु पर प्रसिद्ध स्वदेशी नेता न्यायमूर्ति रानाडे ने कहा था कि बासुदेव बलवन्त फड़के ने देश की बलिवेदी पर अपने जीवन का सर्वस्व बलिदान कर दिया।

साभार – विश्व संवाद केंद्र गुजरात

Leave a comment

This website uses cookies to improve your experience. We'll assume you're ok with this, but you can opt-out if you wish. Accept Read More