Banda Bairagi: कांप उठेगी रूह, जब आप जानेगें बंदा बैरागी की कहानी

Banda Bairagi: भारतवासी आज जो चैन कि सांस ले रहे हैं और आज़ादी में जी रहे हैं, ये हमारे देश के वीर सपूतों और महापुरुषों के बलिदान की वज़ह से ही मुमकिन हुआ है। उनमें से एक महापुरुष थे बन्दा बैरागी, जिन्होंने अनेक अत्याचार सहकर भी संस्कृति को जीवित रखा।

बाबा बन्दा सिंह बहादुर का जन्म कश्मीर स्थित पुंछ जिले (Poonch District) के राजौरी क्षेत्र में विक्रम संवत् 1727, कार्तिक शुक्ल 13 (27 अक्टूबर 1670) को हुआ। वो राजपूतों के (मिन्हास) भारद्वाज गोत्र से थे और उनका असल नाम लक्ष्मणदेव था। इनके पिता का नाम रामदेव मिन्हास था।

लक्ष्मणदास ने युवावस्था में शिकार खेलते समय एक गर्भवती हिरणी पर तीर चला दिया। इससे उसके पेट से एक शिशु निकला और तड़पकर वहीं मर गया। ये देखकर उनका मन खिन्न हो गया। उन्होंने अपना नाम माधोदास रख लिया और घर छोड़कर तीर्थयात्रा पर चल दिये। अनेक साधुओं से योग साधना सीखी और फिर नान्देड़ में कुटिया बनाकर रहने लगे।

इसी दौरान श्री गुरू गोविन्द सिंह जी महाराज (Shri Guru Gobind Singh Ji Maharaj) माधोदास कि कुटिया में आये। उनके चारों पुत्र बलिदान हो चुके थे। उन्होंने इस कठिन समय में माधोदास से वैराग्य छोड़कर देश में फैले इस्लामिक आतंक से जूझने को कहा। इस भेंट से माधोदास का जीवन बदल गया। श्री गुरूजी ने उसे बन्दा बहादुर नाम दिया। फिर पाँच तीर, निशान साहिब, नगाड़ा और हुक्मनामा देकर दोनों छोटे पुत्रों को दीवार में चिनवाने वाले सरहिन्द के नवाब से बदला लेने को कहा। बन्दा हजारों सिख सैनिकों को साथ लेकर पंजाब की ओर चल दिये। उन्होंने सबसे पहले श्री गुरु तेगबहादुर जी महाराज (Shri Guru Tegh Bahadur Ji Maharaj) का शीश काटने वाले जल्लाद जलालुद्दीन (Jalaluddin) का सिर काटा। फिर सरहिन्द के नवाब वजीरखान (Nawab Wazir Khan of Sirhind) का वध किया। जिन हिन्दू राजाओं ने मुगलों का साथ दिया था, बन्दा बहादुर (Banda Bahadur) ने उन्हें भी नहीं छोड़ा। इससे चारों ओर उनके नाम की धूम मच गयी।

बन्दासिंह को पंजाब पहुँचने में लगभग चार माह लग गये। बन्दा सिंह महाराष्ट्र से राजस्थान होते हुए नारनौल, हिसार और पानीपत पहुंचे और खत भेजकर पंजाब के सभी सिक्खों से सहयोग माँगा। सभी सिखों में ये प्रचार हो गया कि श्री गुरू जी ने बन्दा को उनका जत्थेदार यानि सेनानायक बनाकर भेजा है। बंदा की अगुवाई में वीर राजपूतों ने पंजाब के किसानो खासतौर जाटों को हथियार चलाना सिखाया, उससे पहले जाट खेती बाड़ी किया करते थे और मुस्लिम जमींदार इनका खूब शोषण करते थे देखते ही देखते विशाल सेना बन गयी।

इसके बाद बंदा सिंह का मुगल सत्ता और पंजाब-हरियाणा (Punjab-Haryana) के मुस्लिम जमींदारों पर जोरदार हमला शुरू हो गया। सबसे पहले कैथल (Kaithal) के पास मुगल कोषागार लूटकर सेना में बांट दिया गया, उसके बाद समाना, कुंजुपुरा, सढ़ौरा के मुस्लिम जमींदारों को धूल में मिला दिया।

बन्दा ने पहला फरमान ये जारी किया कि जागीरदारी व्यवस्था का खात्मा करके सारी ज़मीन का मालिक खेतिहर किसानों को बना दिया जाये। लगातार बंदा सिंह कि विजय यात्रा से मुगल सत्ता कांप उठी और लगने लगा कि भारत से मुस्लिम शासन को बंदा सिंह उखाड़ फेकेंगे। अब मुगलों ने सिखों के बीच ही फूट डालने कि नीति पर काम किया, उसके विरुद्ध अफवाह उड़ाई गयी कि बंदा सिंह गुरू बनना चाहता है और वो सिख पंथ कि शिक्षाओं का पालन नहीं करता। खुद गुरु गोविन्द सिंह जी कि दूसरी पत्नी माता सुंदरी (Mata Sundari) जो कि मुगलो के संरक्षण/नजरबन्दी में दिल्ली में ही रह रही थी, से भी बंदा सिंह के विरुद्ध शिकायतें कि गयी। माता सुंदरी ने बन्दा सिंह से खूनखराबा बन्द करने को कहा, जिसे बन्दा सिंह ने ठुकरा दिया।

जिसका नतीज़ा ये हुआ कि ज्यादातर सिख सेना ने उनका साथ छोड़ दिया, जिससे उनकी ताकत कमजोर हो गयी तब बंदा सिंह ने मुगलों का सामना करने के लिये छोटी जातियों और ब्राह्मणों को भी सैन्य प्रशिक्षण दिया। 1715 ई. की शुरूआत में बादशाह फर्रुखसियर (Badshah Farrukhsiyar) की शाही फौज ने अब्दुल समद खाँ (Abdul Samad Khan) की अगुवाई में उसे गुरुदासपुर जिले के धारीवाल इलाके के करीब गुरूदास नंगल गाँव में कई मास तक घेरे रखा। पर मुगल सेना अभी भी बन्दा सिंह से डरी हुई थी।

अब माता सुंदरी के प्रभाव में बाबा विनोद सिंह ने बन्दा सिंह का विरोध किया और अपने सैंकड़ो समर्थकों के साथ किला छोड़कर चले गये, मुगलों से समझौते और षड्यंत्र के कारण विनोद सिंह और उनके 500 समर्थको को निकल जाने का सुरक्षित रास्ता दिया गया। अब किले में विनोद सिंह के पुत्र बाबा कहन सिंह किसी रणनीति से रूक गए इससे बन्दा सिंह की सिक्ख सेना कि ताकत बेहद कम हो गयी।

खाने पीने की कमी के कारण बंदा 7 दिसम्बर को आत्मसमर्पण कर दिया। कुछ साक्ष्य दावा करते हैं कि गुरू गोविन्द सिंह जी, माता गूजरी (Mata Gujari) और दो साहबजादो को धोखे से पकड़वाने वाले गंगू कश्मीरी ब्राह्मण रसोइये के पुत्र राज कौल ने बन्दा सिंह को धोखे से किले से बाहर आने को राजी किया।

मुगलों ने गुरदास नंगल के किले में रहने वाले 40 हजार से ज़्यादा बेगुनाह मर्द, औरतों और बच्चों की निर्मम हत्या कर दी। मुगल सम्राट के फरमान पर पंजाब के गर्वनर अब्दुल समन्द खां ने अपने बेटे जाकरिया खां और 21 हजार हथियारबंद सैनिकों की निगरानी में बाबा बन्दा बहादुर को दिल्ली भेजा। बन्दा को एक पिंजरे में बंद किया गया था और उनके गले और हाथ-पांव की जंजीरों को इस पिंजरे के चारों ओर नंगी तलवारें लिये मुगल सेनापतियों ने थाम रखा था। इस जूलुस में 101 बैलगाड़ियों पर सात हजार सिखों के कटे हुए सिर रखे हुए थे जबकि 11 सौ सिख बन्दा के सैनिक कैदियों के तौर पर इस जुलूस में शामिल थे।

युद्ध में वीरगति पाये सिखों के सिर काटकर उन्हें भाले कि नोक पर टाँगकर दिल्ली लाया गया। रास्ते भर गर्म चिमटों से बन्दा बैरागी का माँस नोचा जाता रहा।

मुगल इतिहासकार मिर्जा मोहम्मद हर्सी (Mughal historian Mirza Mohammad Harsi) ने अपनी किताब इबरतनामा में लिखा है कि हर शुक्रवार को नमाज के बाद 101 कैदियों को जत्थों के तौर पर दिल्ली की कोतवाली के बाहर कत्लगाह के मैदान में लाया जाता था। काजी उन्हें इस्लाम कबूल करने या हत्या का फतवा सुनाते। इसके बाद उन्हें जल्लाद तलवारों से निर्ममतापूर्वक कत्ल कर देते। ये सिलसिला डेढ़ महीने तक चलता रहा। अपने सहयोगियों कि हत्याओं को देखने के लिये बन्दा को एक पिंजरे में बंद करके कत्लगाह तक लाया जाता ताकि वो अपनी आंखों से इस दर्दनाक दृश्य को देख सकें।

मुगल बादशाह के फरमान पर तीन महीने तक बंदा और उसके 27 सेनापतियों को लालकिला में कैद रखा गया। इस्लाम कबूल करवाने के लिये कई हथकंडों का इस्तेमाल किया गया। जब सभी कोशिशें नाकाम रही तो जून महीने में बन्दा की आंखों के सामने उसके एक-एक सेनापति कि हत्या की जाने लगी। जब ये कोशिश भी नाकाम रही तो बन्दा बहादुर को पिंजरे में बंद करके महरौली ले जाया गया। जहां काजी ने उन्हें इस्लाम कबूल करने का फतवा जारी किया जिसे बन्दा ने ठुकरा दिया।

 बन्दा के मनोबल को तोड़ने के लिये उनके चार वर्षीय अबोध पुत्र अजय सिंह को उसके पास लाया गया और काजी ने बन्दा को फरमान जारी किया कि वो अपने पुत्र की हत्या अपने हाथों से करें। जब बन्दा इसके लिये तैयार नहीं हुआ तो जल्लादों ने इस अबोध बालक का एक-एक अंग निर्ममतापूर्वक बन्दा कि आंखों के सामने काट डाला। इस मासूम के धड़कते हुए दिल को सीना चीरकर बाहर निकाला गया और बन्दा के मुंह में जबरन ठूंस दिया गया। वीर बन्दा तब भी निर्विकार और शांत बने रहे।

अगले दिन जल्लाद ने उनकी दोनों आंखों को तलवार से बाहर निकाल दिया। जब बन्दा टस से मस न हुआ तो उनका एक-एक अंग हर रोज काटा जाने लगा। अंत में उनका सिर काट कर उनकी हत्या कर दी गयी। बन्दा न तो गिड़गिड़ाये और न उन्होंने चीख पुकार मचाई। मुगलों की हर प्रताड़ना और जुल्म का उन्होनें शांति से सामना किया और धर्म की रक्षा के लिये बलिदान हो गया।

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