Shiv Sena की मौजूदा तस्वीर और दूसरी सियासी पार्टियों के लिये इसके मायने

शरद पवार बीते शुक्रवार (24 जून 2022) को मातोश्री गये और उद्धव ठाकरे से मुलाकात की। ये मुलाकात ऐसे समय में हुई है, जब संजय राउत ने कल कहा था कि अगर बागी विधायक मुंबई लौटते हैं तो शिवसेना कांग्रेस (Shiv Sena) और राकांपा से अपना गठबंधन तोड़ सकती है। वहीं एकनाथ शिंदे गुवाहाटी (Guwahati) से दिल्ली के लिये रवाना हो गये हैं और उनकी मुलाकात बीजेपी के बड़े नेताओं से हो सकती है। भाजपा ने एकनाथ शिंदे (Eknath Shinde) को राज्य सरकार में पांच मंत्री और केंद्र सरकार में दो मंत्री पद की पेशकश की है।

उद्धव ठाकरे ने कल शिवसेना के जिला स्तरीय नेताओं के साथ एक अहम बैठक भी की, जिसमें बीएमसी (BMC) के कुछ पार्षदों ने भी हिस्सा लिया। असल में कोई भी पार्टी सिर्फ विधायकों से नहीं चलायी जाती है। बल्कि उस पार्टी में सांसद होते हैं, पार्षद भी होते हैं और पार्टी के तमाम बड़े पदाधिकारी होते हैं। उद्धव ठाकरे इन नेताओं से मुलाकात कर ये बताने की कोशिश कर रहे हैं कि भले ही अब उनके पास 55 में से 12 विधायक हैं, लेकिन पार्टी संगठन, तमाम बड़े नेता और कार्यकर्ता अभी भी उनके साथ हैं। हालांकि इस बैठक में राज्य के 12 जिलों के बड़े नेता शामिल नहीं हुए।

शिवसेना नेता संजय राउत (Shiv Sena leader Sanjay Raut) ने भी बड़ा बयान दिया है। उन्होंने कहा है कि शिवसेना के कार्यकर्ता अभी सड़कों पर नहीं उतरे है, लेकिन जिस दिन वे सड़कों पर उतरेंगे, जीत शिवसेना के असली सैनिकों की होगी। संजय राउत के इस बयान का असर महाराष्ट्र में भी दिख रहा है। मुंबई के कुर्ला में शिवसेना के बागी विधायक मंगेश कुंडलाकर के ऑफिस में तोड़फोड़ की गयी। शिवसेना कार्यकर्ताओं ने उनके घर के बाहर हंगामा किया। इसके अलावा मुंबई में ही शिवसेना के एक और बागी विधायक दिलीप लांडे (MLA Dilip Lande) के सभी पोस्टर फाड़ दिये गये और उनके खिलाफ नारेबाजी की गयी। नासिक (Nashik) में शिवसेना के खिलाफ बगावत करने वाले एकनाथ शिंदे के पोस्टर पर कालिख लग गयी और इस दौरान शिवसेना कार्यकर्ताओं ने उन्हें खुलेआम मुंबई (Mumbai) आने की चुनौती दी।

शिवसेना से दूसरी सियासी पार्टियों को लेने चाहिये ये दो सब़क

पहला ये कि जब कोई परिवार किसी पार्टी में सबसे बड़ा हो जाता है तो उस पार्टी के नेता और कार्यकर्ता उससे दूर हो जाते हैं। उनका पार्टी से मोहभंग हो जाता है। यानी पारिवारिक पार्टियों में परिवार के नेताओं और जमीन के बीच बहुत गहरी खाई पैदा हो जाती है, जिसे एक वक्त के बाद भरना बेहद मुश्किल हो जाता है। उद्धव ठाकरे के लिये अब यही हो रहा है।

दूसरा सबक ये है कि जिन पार्टियों की विचारधारा मेल नहीं खाती उन्हें एक साथ नहीं आना चाहिये। महाराष्ट्र में सत्ता हासिल करने के लिये शिवसेना, कांग्रेस और राकांपा (Congress and NCP) के मेल से बना गठबंधन असल में वैचारिक बेईमानी के अलावा और कुछ नहीं था। शिवसेना एक ऐसी पार्टी है, जो हिंदुत्व की विचारधारा में अटूट आस्था रखती है। जबकि कांग्रेस की विचारधारा इसके बिल्कुल विपरीत है। और राकांपा एक ऐसी पार्टी है, जिसकी स्थापना कांग्रेस के सिद्धांतों के खिलाफ हुई थी। साल 1999 में शरद पवार (Sharad Pawar) ने सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) से नाराज होकर NCP पार्टी बनायी। लेकिन सत्ता पाने के लिये राकांपा ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया और शिवसेना ने अपनी विचारधारा को अलग कर इन दोनों पार्टियों की मदद से महाराष्ट्र में सरकार बनायी और इसी वैचारिक बेईमानी ने शिवसेना के विधायकों को बागी होने पर मजबूर कर दिया।

ये सभी प्रकरण हमें सिखाते है कि सत्ता मिले या न मिले या देर से मिले, लेकिन राजनीति में विचारधारा से समझौता नहीं करना चाहिये। सोचिए क्या होता अगर शिवसेना ने ये गठबंधन नहीं बनाया होता और हिंदुत्व (Hindutva) की अपनी विचारधारा पर अड़ा रहता। उद्धव ठाकरे भले ही महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री नहीं बने होते, लेकिन आज की तारीख में वो कहीं ज्यादा मजबूत नेता होते। लोकसभा से लेकर राज्य विधानसभा और बीएमसी चुनावों में भी शिवसेना को इसका पूरा फायदा मिलता।

शिवसेना बिना ठाकरे परिवार (Thackeray family) के चल सकती है तो कांग्रेस भी बिना गांधी परिवार (Gandhi family) के चल सकती है। इस राजनीतिक घटनाक्रम के बाद कांग्रेस में जो नेता गांधी परिवार से नाराज हैं, उनके मन में भी शायद बगावत के बीज होंगे या उनके मन में इस घटनाक्रम से उम्मीद की एक किरण जगी होगी। क्योंकि एक समय में ठाकरे परिवार के बिना शिवसेना की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, लेकिन एकनाथ शिंदे ने आसानी से बिना उद्धव ठाकरे से इस पार्टी को संभालते दिख रहे है। और अगर ये बगावत शिवसेना पार्टी में हो सकती है तो भविष्य में कांग्रेस पार्टी बिना गांधी परिवार के भी चल सकती है।

सह-संस्थापक संपादक : राम अजोर

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