Russia Ukraine War: सीमित प्रतिबंधों का दौर और नामुमकिन यूक्रेनी आज़ादी की बहाली

Russia Ukraine War: 24 फरवरी 2022 की सुबह यूक्रेन पर बड़े पैमाने पर रूसी हमले ने अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष के रक्तहीन समाधान की सभी आशाओं को धराशायी कर दिया, जो तब से चल रहा था जब रूस ने यूक्रेन के चारों ओर अपनी सैन्य उपस्थिति को अलग-अलग बहाने से बढ़ाना शुरू कर दिया था। बेलारूस और क्रीमिया (Belarus and Crimea) समेत यूक्रेन के आसपास के इलाकों में रूसी सैनिकों की तादाद घोषित अमेरिकी आकलन के मुताबिक 30 जनवरी, 2022 को लगभग 100,000 से 169,000 और 190,000 के बीच कहीं।

यूक्रेन में रूस के सैन्य अभियान से मानव जीवन, क्षेत्रीय स्थिरता अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और अर्थव्यवस्था को भारी कीमत चुकानी होगा। ये सब ऐसे वक़्त में हो रहा है जब दुनिया अभी महामारी के हालातों से पूरी तरह उभर नहीं पायी है। जिसने धरती पर जीवन को लगभग पीसकर रख दिया है। अब अहम सवाल ये कि क्या रूस के पास चिंता करने का अहम कारण था, जिसे वक़्त रहते प्रभावी ढंग से कूटनीतिक विकल्पों का सहारा लेते हुए सुलझाया जा सकता था लेकिन जो हो रहा है वो कई चीज़ों की संयुक्त नाकामियों की नतीज़ा है।

चूंकि रूसी राष्ट्रपति के लिये जनता की राय ज़्यादा मायने नहीं रखती है, ये सब इस बात पर निर्भर करता है कि वो क्या सोचते है, कैसे काम करते है और क्या हासिल करते है। राष्ट्रपति जो सोचते हैं वो यह है कि यूएसएसआर (USSR) का विघटन एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी और वो सोवियत संघ (Soviet Union) के दौरान फैली हुई सीमाओं को वापस रूस की संप्रभुता का हिस्सा बनाना चाहते है। वो हर तरह से इस काम को अंज़ाम देने के लिये मजबूती से काम कर रहे है। बढ़ती उम्र के साथ पुतिन रूसी इतिहास में अपनी जगह को लेकर काफी फ्रिकमंद है, वो चाहते है कि उन्हें मजबूत नेता के तौर पर याद रखा जाये। वो रूसी जनता को वो इतिहास भुलवाना चाहते है जिसकी वज़ह से सोवियत संघ बर्बादी के कगार पर पहुँचा।

पुतिन के पास उन राष्ट्रों पर हमला करने और उन पर कब्जा करने का इतिहास है, जो कभी यूएसएसआर का हिस्सा रहे थे और जिन्होनें नाटो (NATO) के सदस्य बनने की मांग की। क्योंकि नाटो में शामिल होने का मतलब है कि संभावित रूसी हमले के खिलाफ बेहतर बचाव। यूएसएसआर से छिटके देशों को यहीं कारगर विकल्प दिखता है। साल 2008 में जॉर्जिया (Georgia) पर हमले और 2014 में क्रीमिया पर कब्जा इसकी मिसाल हैं। इसका मतलब ये भी है कि पूर्व में सोवियत संघ का हिस्सा रहे देशों के पास नाटो सदस्यता लेने और हासिल करने की वाज़िब वज़ह है। क्योंकि उनकी अपनी आज़ादी के लिये मास्को बड़ा खतरा है।

नाटो की सदस्यता को रोकना और इस तरह रूस और नाटो मुल्को के बीच बफर ज़ोन कायम रखना मास्को की बाहरी चाहत है। अंदरूनी तौर पर वो आगे बढ़ाकर बड़े मिशन पर कम कर रहा है। वैश्विक संतुलन और सोवियत संघ के गौरव की वापसी इसके दो अहम बिंदु है। नाटो से सीधे भिड़न्त में रूसी राष्ट्रपति की उतनी दिलचस्पी नहीं है, जितनी कि रूस में पूर्व सोवियत राज्यों को बल फिर से संगठित करने में है। जो कि यूक्रेन और जॉर्जिया में रूस के उग्र अलगाववादी आंदोलनों की ताकत देता है। पहले आंतरिक एकता को आंतरिक रूप से कमजोर करना और फिर कमजोर राष्ट्र को सैन्य रूप से जोड़ना, खोये हुए सोवियत क्षेत्रों को फिर से हासिल करने की अपनी महत्वाकांक्षा को आगे बढ़ाने के लिये पुतिन का ये पसंदीदा तरीका रहा है।

$ 600 बिलियन के रूसी विदेशी मुद्रा भंडार पुतिन को लगता है कि ये वक़्त यूक्रेन पर कदम उठाने का मुफीद वक़्त है।  रूसी ने अपनी सैन्य क्षमताओं को बड़े पैमाने पर उन्नत किया है और संयुक्त राज्य अमेरिका दूर-दराज में लंबे समय से चली आ रही जंग से थक गया है। अफगानिस्तान की ज़मीन पर वाशिंगटन (Washington) ने लंबे समय तक नाकें रगड़ी और हासिल क्या हुआ वो दुनिया से छिपा नहीं है। पुतिन दुनिया को मजबूत-कमजोर बाइनरी के तौर पर देखते है और अफगानिस्तान (Afghanistan) से अमेरिका की वापसी को वो अमेरिकी कमजोरी के तौर पर आंकते है।

पुतिन के विचार में अमेरिकी जनता की राय एक और विदेशी धरती पर दूर की जंग में शामिल होने के पक्ष में नहीं हो सकती है, एक अन्य विदेशी राष्ट्र के साथ विदेशियों के एक और झुंड का बचाव करने के लिये अमेरिकी जनता कभी तैयार नहीं होगा। अमेरिकी जनता शायद एक और सैन्य जुड़ाव का स्वागत नहीं कर रही है। अमेरिका में जनमत मायने रखता है, जिसे पुतिन अमेरिकी सरकार पर अतिरिक्त बोझ के तौर पर देखते हैं – उनके विचार में ये एक और अमेरिकी कमजोरी है।

यूक्रेन के रूसी कब्जे के बाद अमेरिका की अगुवाई में कई देशों द्वारा प्रतिबंधों से मास्को पर काबू पाने की कवायदें देखी गयी। भले ही ऐसी घटनायें अभी भी सामने आ रही हैं और रूस के पास अभी तक यूक्रेन नहीं है। अब सवाल ये है कि क्या विलय के बाद के प्रतिबंध रूस को यूक्रेन की स्वतंत्रता और संप्रभुता को बहाल करने वाले समझौते पर सहमत हो पीछे धकेलने के लिये काफी होंगे। बहुत संभावना नहीं में ही है।

सभी देश रूस के खिलाफ संयुक्त राज्य अमेरिका की अगुवाई खड़े होने की स्थिति में या इच्छुक नहीं हैं, और चीन उनमें से एक है। जब तक कोई रास्ता नहीं मिल जाता रूस को रूस की ऊर्जा की जरूरतों को देखते हुए यूरोप (Europe) को बहुत लंबे समय तक रूस के खिलाफ एकजुट स्टैंड लेना मुश्किल हो सकता है। भारत के रूस के खिलाफ मजबूत स्थिति लेने की संभावना नहीं है क्योंकि आक्रामक चीन (China) के खिलाफ सत्ता के क्षेत्रीय पैमानों को संतुलित करने के लिये उसके पास सिर्फ और सिर्फ रूस ही है। इसके अलावा भारत की रूस के साथ सहयोग की एक लंबी परंपरा रही है, जिसे वो एक छोटे से राष्ट्र के लिये अचानक नहीं छोड़ेगा, जिससे कि नई दिल्ली को अपेक्षाकृत कम लाभ हो। हालांकि ये सुनने में अटपटा लगता है, अंतर्राष्ट्रीय संबंध सिद्धांतों या किसी और चीज की तुलना में स्वार्थ से ज्यादा संचालित होते हैं।

इसलिए बहुत शोर-शराबे की निंदा होगी और रूस द्वारा कुछ रियायतें भी दी जा सकती हैं, लेकिन कूटनीति के जरिये यूक्रेनी स्वतंत्रता की बहाली की संभावना बहुत कम है।

सह-संस्थापक संपादक: राम अजोर

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