Islam: ज़मीन की अहमियत का इस्लामिक गणित

इस्लाम (Islam) में ज़मीन का विचार बहुत केंद्रीय महत्व का मालूम होता है। ज़मीन अपनी है तो बस्ती अपनी है और बस्ती अपनी है तो जीत अपनी है- कुछ वैसा भाव। महाभारत में दुर्योधन ने कहा था- सुई की नोक बराबर भूमि भी नहीं दूँगा- कुछ वैसी भावना भी। ज़मीन की चोट इस्लाम में माफ़ नहीं की जाती। गाज़ा, कश्मीर, अयोध्या के नाम पर इंतेक़ाम की क़समें वहाँ हज़ार साल तक खाई जा सकती हैं।

भू-राजनीति की क्लासिकल शब्दावली में पहले इसे कलोनाइज़ेशन कहते थे, अलबत्ता उसके मूल में धन और सत्ता की लिप्सा थी। जर्मनों ने इसे लेबेन्सरॉम कहा, जिसमें अब अपनी नस्ल के प्रसार का भाव सम्मिलित हुआ। यह रेशियल-आउटलुक औपनिवेशिकों में इतना नहीं था। नात्सियों ने बाक़ायदा लेबेन्सरॉम को थ्योरिटाइज़ किया था। वो कहते थे कि आर्य-नोर्डिक एक श्रेष्ठ जाति है, इसके रहने के लिए जर्मनी काफ़ी नहीं, हमें और भूमि चाहिए। इसी से नात्सी-जर्मनी ने ऑस्ट्रिया और चेकोस्लोवाकिया (Austria and Czechoslovakia) को अपने में मिला लिया था और पोलैंड, फ्रांस, डेनमार्क, बेल्जियम, सोवियत संघ पर चढ़ाई कर दी थी। इस्लाम और नात्सियों में कुछ समानता तो है, एंटी-सैमेटिज़्म (यहूदी-द्वेष) के अलावा भी। भारत में उदारवादी बौद्धिकों को अगर कहा जाए कि इस्लाम में फ़ासिस्ट-वृत्तियाँ हैं तो वो चकित रह जाएँगे। अपनी कमअक़्ली के चलते वो बेचारे ये सोचते हैं कि इस्लाम तो फ़ासिज़्म का विक्टिम है!

आज दुनिया में कोई पचास से ज़्यादा इस्लामिक मुल्क हैं। सन् सैंतालीस में मुस्लिम लीग को मनमाँगी मुराद मिली- पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान। शैतान को भी यह ग़ुमान नहीं था कि इन दोनों मुल्कों में वैज्ञानिक चेतना से सम्पन्न, लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की स्थापना की जाएगी। वहाँ इस्लामिक क़ानूनों पर चलने वाला राष्ट्र ही बनना था, सो बना। पचास से ज़्यादा थे, दो और खाते में जुड़े। इस्लामिक-ज़ेहन इसे जश्न की तरह दर्ज करता होगा- दो और मुल्क। यानी ख़ूब सारी ज़मीन, पाँव पसारने के लिए। जबकि दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी मुस्लिम-आबादी आज भी हिंदुस्तान में है और अकेले उत्तर प्रदेश में दुनिया की सातवीं सबसे बड़ी मुस्लिम-आबादी रहती है!

किंतु कसक यह है कि कश्मीर नहीं मिला और हैदराबाद हाथ आते-आते रह गया। हज़ार मंदिर तोड़े, लाखों मूर्तियाँ खंडित की और सैकड़ों पुस्तकालय जलाए- लेकिन अयोध्या अक्षम्य है। गोयाकि अंदाज़ वही है कि- सुई की नोक बराबर भूमि भी नहीं दूँगा, भले महाभारत हो जाए।

तब फ़लस्तीन में यहूदियों ने मुसलमानों को खदेड़ दिया, यह तो नाक़ाबिले-बर्दाश्त वाली बात ही कहलाएगी। नफ़े की सोच में नुक़सान हुआ, पाँव के नीचे की ज़मीन चली गई। दुनिया में ग्लोबल वॉर्मिंग होती रहे, क्लाइमेट चेंज होता रहे, पृथ्वी पर सिक्स्थ एक्सटिंक्शन एस्टेरॉइड-स्ट्राइक से होगा, पैन्डेमिक से होगा या आर्टिफ़िशियल इंटेलीजेंस से- इस पर दुनिया सिर खपाती रहे- मुसलमान को फ़र्क़ नहीं पड़ता, वो केवल फ़लस्तीन के मसले पर आंदोलित होगा। ऐसा मालूम होता है मुसलमान अपनी एक फ़र्क़ ही धरती पर रहते हैं और जब पृथ्वी पर महाप्रलय होगी तो इस्लामिक-राष्ट्र (Islamic nation) उससे सुरक्षित रह जावेंगे- शायद हज़रत नूह की नैया के सहारे- क़यामत काफ़िरों पर ही बरपेगी।

फ़लस्तीन पर पूरी दुनिया के मुसलमान आंदोलित क्यों होते हैं? और फ्रांस के ख़िलाफ़ क्यों सड़कों पर उतर आते हैं? कश्मीर पर क्यों? क्राइस्टचर्च पर क्यों? क्या यह जाति मनुष्य और नागरिकता के मानदण्डों से मुक्त होकर केवल इस्लामिक-पहचान से जुडी है? तेरा-मेरा क्या नाता- ला इलाहा इल्लल्लाह?

जब भारत में सीएए क़ानून पर बहस चल रही थी तो सत्ताधारी दल का तर्क था कि हम दूसरे देशों से अपने लोगों को यहाँ लाना चाहते हैं, वो यहाँ नहीं आएँगे तो कहाँ जाएँगे। यह तर्क फ़लस्तीन पर लागू क्यों नहीं होता? पचास इस्लामिक मुल्क फ़लस्तीनियों को अपने यहाँ पनाह देने की पेशकश क्यों नहीं करते? पलायन जब मजबूरी ही बन जावे तो क्या कर सकते हैं? हिजरत तो हज़रत ने भी की थी।

लेकिन अपनी चौकी छोड़कर जाना सैन्यवादी उसूलों के बरख़िलाफ़ होता है। हिटलर कहता था, एक बार जिस जर्मन ने जिस धरती पर क़दम रखा, उसे वह अपनी मौत के बाद ही छोड़ेगा। अपने खूँटे वाली बात है, यों दुनिया में इस्लामिक मुल्कों की कमी नहीं, जो भले कुर्दों और यज़ीदों को अपने यहाँ ना रखें, फ़लस्तीनियों को तो शरण दे सकते हैं। रोहिंग्या, सीरियाई, बांग्लादेशियों को तो रख ही सकते हैं। कह लीजिये कि यहूदी एक राक्षसी-क़ौम है और वो इज़रायल छोड़ने वाली नहीं है। मुसलमान तब यह भी तो कह सकते हैं कि उनका इकलौता मुल्क वही है, उनके पास कोई और विकल्प नहीं, हमारे पास तो पचास विकल्प हैं। हमीं ज़िद छोड़ दें। ये तमाम बातें मैं हाइपोथेटिकली कह रहा हूँ और इसके केंद्र में यह अटकल है कि इस्लाम में ज़मीन का बड़ा महत्व है। इज़रायल-प्रश्न के परिप्रेक्ष्य में इस हाइपोथिसीस की और व्याख्या करने के लिए मैं टिप्पणियों में पाठकों को निमंत्रित करता हूँ कि क्या मैं सही सोच रहा हूँ या ग़लत?

साभार – सुशोभित

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