मोदी और शाह के चेहरे पर टिकी BJP की बुनियाद

हिमाचल प्रदेश में 12 नवंबर को हुए चुनाव से पहले सोलन में एक रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि: “याद रखें, भाजपा (BJP) का उम्मीदवार कौन है? आपको किसी को याद नहीं करना है। बस कमल को याद करो… वोट डालते समय अगर कमल का फूल दिखे तो समझ लेना ये है बीजेपी, ये है मोदी जो आपके पास आये है। कमल का फूल के लिये आपका एक-एक वोट आशीर्वाद के तौर पर सीधे मोदी के खाते में जायेगा।

पार्टी के मुख्यमंत्रियों को सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ रहा है, भाजपा तेजी से अभियान के आखिरी हफ्तों पर भरोसा कर रही है, जब मोदी भीड़ को याद दिलाते हुए कहते हैं कि वो नई दिल्ली सिर्फ उनके लिये वहां आये हैं। जब पार्टी की मुहिम को आगे बढ़ाने की बात आती है, मतदाताओं के साथ फिर से जुड़ाव बनाने और उनका विश्वास फिर से हासिल करने की बात आती है तो भाजपा में दो से ज़्यादा चेहरों के अलावा कोई विकल्प नहीं है।

अगर मोदी भाजपा का चेहरा हैं तो केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह (Amit Shah) किसी भी चुनाव से पहले पार्टी रणनीति बनाने, उसे दिशा देने, सामंजस्य और ऊर्जा देने के लिये प्रमुख संगठनात्मक व्यक्ति बने हुए हैं। मिसाल के लिये गुजरात को लें। शाह राज्य भाजपा के मामलों से दूर रहते थे, पार्टी के असल राष्ट्रीय प्रमुख के तौर पर वो केंद्र में ज्यादा व्यस्त थे। यहां तक कि पिछले साल राज्य में सत्ता परिवर्तन से कुछ दिन पहले हुई राज्य कार्यकारिणी की बैठक सितंबर 2021 में भूपेंद्र पटेल ने विजय रूपाणी (Vijay Rupani) की जगह ली, इस दौरान समारोह में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह (Rajnath Singh) ने हिस्सा लिया, जिसमें अमित शाह साफतौर पर से गैरमौजूद थे।

पार्टी मामलों का संचालन बी एल संतोष (महासचिव, संगठन) मनसुख मंडाविया (मोदी की ओर से केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री चुने गए); जे पी नड्डा (भाजपा अध्यक्ष); सी आर पाटिल (गुजरात इकाई के प्रमुख) जैसे दिग्गज़ किया करते है। पाटिल को मोदी के प्रति काफी निष्ठावान माना जाता है और उन्होंने जुलाई 2020 में गुजरात बीजेपी प्रमुख के तौर पर शाह के करीबी जीतू वघानी (Jeetu Vaghani) की जगह ली।

हालांकि अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) की अगुवाई वाली आम आदमी पार्टी (आप) के गुजरात चुनाव जोर-शोर के साथ गंभीर दावेदार माना जा रहा है। जिसके देखते हुए अमित शाह एक्टिव हुए और पार्टी के चुनाव प्रचार पर नियंत्रण, बूथों से लेकर जिलों से लेकर राज्य स्तर तक के नेताओं के साथ मैराथन बैठकें करने की कवायद उन्होनें शुरू कर दी।

ये दिखाता है कि मोदी और शाह की अमोघ छत्रछाया के बावजूद भाजपा को देश के सभी कोनों में ले जाने के लिये आक्रामक अभियानों और आउटरीच कार्यक्रमों का असर थोड़ा बहुत फीका पड़ा है। भाजपा नेताओं ने पार्टी की राज्य इकाइयों में इज़ाफे के लिये संघर्ष किया है। हर महीने भाजपा पदाधिकारियों, केंद्रीय मंत्रियों, सांसदों और विधायकों को जमीन पर बने रहने, मतदाताओं तक पहुंचने और मोदी सरकार के अच्छे कामों को बताने के लिये आलाकमान की ओर से लिस्ट जारी की जाती है।

राज्य इकाइयों में वोट बटोरने वालों की गैरमौजूदगी का एकमात्र अपवाद योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) हैं, जिन्होंने सीएम बनने के बाद से उत्तर प्रदेश और बाहर में अपने अच्छे खासे फॉलोवर बनाये हैं। हालांकि यूपी में भी शाह ने आखिरकार 2022 के विधानसभा चुनावों में भाजपा के लिये एक बार फिर से जीत सुनिश्चित करने के लिये कैडर को वॉर मोड पर तैयार किया था।

मोदी को एक से ज़्यादा बार संगठनात्मक गतिविधियों के साथ-साथ संसदीय कार्यवाही में हिस्सा लेने की बात आने पर पार्टी के सांसदों की उम्मीदों पर खरा उतरने में नाकामी पर अपनी निराशा ज़ाहिर करने के लिये जाने जाते है।

हिमाचल में जहां भाजपा बगावत के गंभीर मुद्दे का सामना कर रही है, ऐसा माना जाता है कि मोदी ने बागी नेताओं में से एक कृपाल परमार (Kripal Parmar) को शांत करने के लिए खुद फोन किया था। कॉल की रिकॉर्डिंग वायरल होने के बाद विपक्ष ने बीजेपी पर हमला बोला था, लेकिन पार्टी ने न तो आधिकारिक तौर पर इसकी पुष्टि की और न ही इसका खंडन किया। शीर्ष नेता कॉल करके अपनी बागी नेता से संपर्क साधता है ये दिखाता है कि मोदी अपने नेताओं के साथ सीधे संपर्क में हैं।

हालांकि कुछ चीज़ों के संचालन को लेकर पार्टी नेताओं में कुछ असंतोष पैदा हो रहा है, खासकर पदों के लिये लोगों के चयन को लेकर। हिमाचल में ये चुनाव के दौरान खुलकर सामने आ गया, भाजपा कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ (Madhya Pradesh and Chhattisgarh) में राज्य इकाइयों के मोहभंग को लेकर काफी चिंतित है, ये सभी राज्य अगले साल चुनाव की दहलीज़ पर पहुँचने वाले है।

लेकिन चिंता इस बात से कम हो जाती है कि भाजपा के पास चेहरे के तौर पर मोदी, संगठन के आदमी के रूप में शाह और उसके मिलनसार प्रमुख के रूप में नड्डा की रणनीति अब तक विजेता रही है। और ये कि विपक्ष के पास इसका कोई तोड़ नहीं है।

सह-संस्थापक संपादक : राम अजोर

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