Afghanistan Crisis: सरेंडर कर देने की अफगानी आदत और मौजूदा हालात

सोशल मीडिया में अफगानिस्तान (Afghanistan) की ये तस्वीर वायरल हो रही है, जिसमें बुद्ध की मूर्ति पर बन्दूक टिका एक तालिबानी लड़ाका बैठा हुआ है। वो विजयी है…

सत्ता का युद्ध कभी भी बन्दूक से ही जीता गया है। अहिंसा (non violence) उसके आगे हाथ बांधे खड़ी रहती है, और अंततः कटने के लिए अपना माथा झुका देती है। साम्राज्यों के इतिहास (History Of Empires) का पहला और अंतिम सत्य यही है कि जिसके पास बन्दूकें अधिक हों, सत्ता उसी की होती है। बिना खड्ग बिना ढाल वाली बात गीतों में भले अच्छी लगे, वास्तविक संसार में उसका कोई मूल्य नहीं।

अफगानिस्तान में जो हुआ है उसमें मुझे कुछ अजीब नहीं लग रहा है। जिस तरह अमेरिका के जाते ही मात्र दो महीने में तालिबान ने देश पर कब्जा कर लिया है, उससे ये साफ पता चलता है कि ये सत्ता का हस्तानांतरण (Transfer Of Power) है। अफगान सेना पराजित नहीं हुई है, अफगान सेना लड़ी ही नहीं है। उसने सीधे सीधे आत्मसमर्पण कर दिया है।

आपको ये अजीब लग सकता है, पर अगर आप अफगानिस्तान का इतिहास देखेंगे तो आपको लगेगा कि इसमें कुछ भी अजीब नहीं। बौद्ध काल से ही आम अफगानों ने हर आतंकी के सामने यूँ ही सरेंडर किया है। मौजूदा अफगानिस्तान इलाका शुरू से ही भारत में पश्चिम की ओर से घुसने का द्वार था। अशोक के काल में जब वहाँ की जनता धर्म बदल कर बौद्ध हुई, उसके बाद से ही उसने  प्रतिरोध छोड़ दिया। और यही कारण है कि उसके बाद पश्चिम से जब भी कोई आक्रमण हुआ तो आक्रांता (Attacker) बिना रोक-टोक के सीधे सिन्ध-पंजाब तक आ गया। प्रतिरोध जब भी हुआ, सिंध और पंजाब में ही हुआ।

सिकन्दर हो, तैमूर हो, बाबर हो या मध्य एशिया से निकला अन्य कोई लुटेरा, अफगानिस्तान की धरती पर कभी किसी का प्रतिरोध नहीं हुआ। हर बार कथित योद्धा अफगानों ने 'हुजूर का इकबाल बुलंद रहे' कहते हुए सर झुका लिया। वो तो पंजाब, सिंध, गुजरात, राजस्थान के लड़ाके थे जिन्होंने हर बार इन आतंकियों को मार मार कर उनकी गति रोकी।

अगर आप सोचते हैं कि गोरी और गजनवी अफगान थे और उन्होंने भारत पर आक्रमण किया और विजयी हुए तो बता दें कि न गोरी मूलतः अफगान था न गजनवी। दोनों मध्य एशिया के उन्हीं बर्बर कबीलाई संस्कृति (Berber tribal culture) से निकले थे जहाँ से चंगेज, तैमूर, बाबर आदि आये थे। गोरी मूलतः तजाकिस्तान का था और गजनवी का बाप सुबुक्तगीत मूलतः तुर्क था। अफगान पिछले दो हजार वर्षों से केवल सरेंडर ही कर रहे हैं।

इसमें कोई शक नहीं कि अफगानिस्तान में भी बहुत बड़ी आबादी ऐसी है जो तालिबान को पसन्द करती है। जो मन से चाहते हैं कि उनके देश में तालिबानी कानून (Taliban law) चले। ऐसे लोग हर देश में हैं। भारत में भी तालिबान की जीत पर प्रसन्न होने वाले लोगों के असंख्य ट्वीट इस बात की गवाही दे रहे हैं।

तालिबान की जीत पर जश्न मनाने वाले लोग हर देश में हैं। ऐसे लोगों की दृष्टि में अफगानी जनता का कोई मूल्य नहीं। निरंकुश सत्ता (Autocratic Power) के जश्न में जनता का कहीं स्थान नहीं होता और हर युद्ध में हाथ खड़ा कर देने वाले लोगों के लिए तो किसी के मन मे संवेदना नहीं जगती। खैर! अफगानिस्तान में बदल रही परिस्थिति भविष्य में क्या रंग दिखायेगी ये तो समय ही जाने।

साभार - सर्वेश तिवारी श्रीमुख

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