शिवसेना यू-टर्न लेगी या स्ट्रेट ड्राइव करेगी ?

महाराष्ट्र के सियासी हालातों में काफी पेंच फंसे हुए दिखाई दे रहे है। अब तक राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी के पास एनसीपी, शिवसेना और भाजपा के कई चक्कर लग चुके है। सूबे की सियासत में दिलचस्प तस्वीर देखने को ये मिल रही है कि, प्रथम दृष्टया शिवसेना के पास बहुमत का कोई आंकड़ा नहीं है। लेकिन ना जाने किस समीकरण के भरोसे उनमें सरकार बनाने को लेकर अति-आत्मविश्वास है। दूसरी ओर एनसीपी गठबंधन की सभी संभावनाओं को नकार चुकी है। उद्धव ठाकरे के पुत्रमोह ने सरकार बनाने को लेकर जो व्यवधान डाला है, उससे ये गठबंधन पूरी टूट के कगार पर पहुँच चुका है। ऊपर से शिवसैनिकों के आक्रामक बयानों ने बची-खुची संभावनाओं पर भी विराम लगा दिया है। 

आगे की सियासी तस्वीर क्या होगी ? 
शिवसेना का जन्म हिंदू राष्ट्र की जमीन पर हुआ है। बाला साहेब का भगवा प्रेम, मराठी अस्मिता और हिन्दुत्व के प्रति झुकाव जगजाहिर है। उनकी विरासत को आगे ले जाते हुए उद्धव ठाकरे जिस तरह से मौजूदा सियासी कवायद को अन्ज़ाम दे रहे है उससे शिवसेना का वोटबैंक बिखर सकता है। जिस तरह से महाराष्ट्र में सरकार के गठन को लेकर इतना समय लग रहा है उससे शिवसेना के मौजूदा विधायक भी पाला बदल सकते है। अमित शाह की कुशल व्यूह रचना इन्हें तोड़ सकती है। ये सब ऐसे में मौके पर हुआ जब राम मंदिर का फैसला आया। शिवसेना के एजेंडे में राम मंदिर भी रहा है। लेकिन सरकार गठन में वो इतनी व्यस्त दिखी कि, अदालती फैसले के बाद राम मंदिर के मुद्दे पर उनका रूख़ काफी उदासीन रहा। 

उद्धव ठाकरे के सामने संकट घड़ी 
जिस तरह से उद्धव ठाकरे एनसीपी और कांग्रेस से हाथ मिलाने के लिए उतावले नज़र आ रहे है उससे उनकी राजनीतिक साख में काफी गिरावट आयी है। शिवसेना के मौजूदा वोट बैंक में ये बातें घूम रही है कि, कुर्सी हासिल करने की कवायद में उद्धव ठाकरे अपने कई साल पुराने वैचारिक सूत्रों से समझौता कर, विपरीत धुरी की पार्टियों को गोद में जा बैठे है। कट्टर शिवसैनिक मातोश्री से सामने उनके खिलाफ़ खड़े हो सकते है। अगर किसी तरह जोड़-तोड़ करके सरकार बन भी गयी तो उसमें स्थायित्व के आसार ना के बराबर दिखते है। वर्षों से धुर-विरोधी रही पार्टियां एक साथ काम करेगी। ये संभावना कहीं भी ठहरती नहीं दिख रही है। मौजूदा विधायकों को इस बात का भी डर सता रहा है कि अगर दुबारा चुनाव हुए तो, जिस तरह से उद्धव ने हिन्दुत्व वोट बैंक की नाफरमानी की है। उसकी वज़ह से दुबारा चुनकर आना मुश्किल होगा। 

शिवसेना को कहां-कहां समझौता करना पड़ेगा 
अगर किसी तरह एनसीपी और कांग्रेस से शिवसेना की दाल गल भी गयी तो, कई ऐसे विषयों पर शिवसेना को समझौता करना पड़ेगा, जो उसे उसकी जन्मजात विचारधारा से बहुत दूर ले जायेगा। सबसे पहले तो शिवसेना के माथे से कट्टर हिन्दुत्व वाली छवि धुलेगी जिसके लिए वो खासतौर से जानी जाती है। शिवसेना को मजबूरन विनायक दामोदर सावरकर को भारत रत्न देने वाली बात पर रोल बैक करना पड़ेगा। एनसीपी-कांग्रेस की वो बात माननी पड़ेगी, जिसमें मुस्लिम समुदाय को 5 फीसदी आरक्षण देने के प्रावधान है। कॉमन मिनिमम एजेंडा के तहत अपने सभी मूल विचारों को छोड़ना पड़ेगा। महाराष्ट्र की जनता ने भाजपा-शिवसेना के गठबंधन को वोट दिया था। जिसका खामियाजा उद्धव अगले चुनावों में भुगतेगें। उनके पक्ष में गिरे वोटों का अच्छा-खासा प्रतिशत छिटक जायेगा। शिवसेना से जुड़े कुछ खास़ शब्द मराठी मानुष, महायुति, हिन्दू हृदय सम्राट अब इतिहास की किताब में दफ़्न होता दिख रहा है। 
अन्दरखाने ये भी खब़रे गर्म है कि भाजपा को उद्धव ठाकरे को सीएम बनाने में कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन आदित्य के नाम पर भाजपा काडर में किसी तरह की कोई आम सहमति नहीं है। इस बीच शिवसेना और भाजपा के मौजूदा हालातों के बीच नितिन गडकरी का ये बयान बेहद अहम् माना जा रहा है, जिसमें उन्होनें कहा था कि क्रिकेट और सियासत में कुछ भी हो सकता है। उनके इस बयान के दो मायने सीधे तौर पर नज़र आ रहे है शिवसेना अपने मौजूदा पॉलिटिकल स्टैंड पर कायम रहेगी या फिर यू-टर्न लेते हुए भाजपा-शिवसेना का फिर से गठबंधन बहाल हो सकता है। जिसकी संभावना ना के बराबर दिखती है।
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