Janmashtami 2021: कृष्ण जन्मोत्सव का प्रकृति ने इस तरह किया मोहक और उल्लासमय स्वागत

Janmashtami 2021: भगवान श्रीकृष्ण का अवतार अपने भक्तों को आनन्द देने के लिये है इसलिए उनके आविर्भाव के पूर्व ही प्रकृति में सर्वत्र आनन्द छा गया। जैसे अंत:करण शुद्ध होने पर उसमें भगवान का आविर्भाव होता है, श्रीकृष्णावतार (Sri Krishna Avatar) के अवसर पर ठीक उसी प्रकार समष्टि (प्रकृति) की शुद्धि का वर्णन किया गया है।

पुराणों में भगवान की दो पत्नियों का वर्णन मिलता है–एक श्रीदेवी और दूसरी भूदेवी। जिस समय श्रीदेवी के निवासस्थान बैकुण्ठ से उतरकर भगवान भूदेवी के निवासस्थान पृथ्वी पर आने लगे, तब जैसे परदेश से पति के आगमन का समाचार सुनकर पत्नी सज-धजकर आगवानी करने के लिए निकलती है, वैसे ही पृथ्वी (भूदेवी) का मंगलचिन्हों (Auspicious Signs) को धारण करना स्वाभाविक है। भगवान के चरण मेरे वक्ष:स्थल पर पड़ेंगे, अपने ऐसे सौभाग्य को देखकर पृथ्वी आनन्दित हो गयी। आज भी इस मंगलदिन पृथ्वी के वक्ष:स्थल पर एक विलक्षण आनन्द का महानृत्य होता है। इसी महाआनन्द का श्रृंगार-रस परिपूरित वर्णन श्रीशुकदेवजी ने श्रीमद्भागवत में किया है। वे कहते हैं–

अथ सर्वगुणोपेत: काल: परमशोभन:।

अर्थात् ‘काल समस्त शुभ गुणों से युक्त और परम शोभन हो गया।’ काल नित्य ही जगत के सृजन-संहार में लगा रहता है–बनाता है, फिर बिगाड़ देता है। पर आज जब काल को यह पता लगा कि परिपूर्णतम स्वयं भगवान मेरे अंदर प्रकट हो रहे हैं, तब उसके आनन्द की सीमा नहीं रही और अपने समस्त गुणों को प्रकट करके वह परम शोभन बन गया। उसने प्रत्येक ऋतु तथा प्रत्येक समय विशेष से चुन-चुनकर सभी सद्गुणों को अपने में धारणकर लिया और वो विलक्षण रूप से सुसज्जित हो गया।

भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ही काल, दिशा और देश के नियन्ता हैं, इसलिए आज ‘काल’ की ही भांति ‘दिशा’ और ‘देश’ भी समस्त सद्गुणों से सुशोभित हो रहे हैं। दसों दिशाएँ प्रसन्न हो गयीं। सभी दिक्पाल (दिशाओं के अधिपति) आनन्दपूर्ण हृदय से अपने स्वामी के शुभागमन का अभिनन्दन करने के लिए दिग्वधुओं (अपनी पत्नियों) के साथ हाथों में अर्घ्यपात्र लेकर उनकी प्रतीक्षा करने लगे। गगन में तारे इस प्रकार जगमगा रहे थे मानों अनन्त पात्रों में हीरों के पुष्प भरकर अपने स्वामी को अर्पण करने की इच्छा से खड़े हों। भगवान श्रीकृष्ण के मंगल आगमन से सभी देश आनन्द-मंगल से भर गये।

नगरों के मार्ग साफ व सुगन्धित हो गये। धनिकवर्ग के महलों पर दीपमालायें जगमग करने लगीं। सर्वत्र शंख-ध्वनि होने लगी, विविध वाद्य बजने लगे, जगह-जगह पूजा तथा स्तुतियां होने लगीं। मन्त्रोच्चार (chanting) होने लगे। रत्नों की खानें स्वयं ही रत्नों को बाहर फेंकने लगीं। पृथ्वी के सभी स्थानों पर आनन्द मूर्तिमान होकर नदी, सरोवर, वन, पर्वत आदि में सभी जगह व्याप्त हो गया।

नदियों का जल निर्मल हो गया और वे अपनी ऊँची तरंगों से मानो भुजाओं को उठाकर नाचती हुयी बड़े वेग से श्रीकृष्ण जन्म का संवाद सुनाने के लिए दौड़ रही हो। सरोवरों में असंख्य कमलों की पंक्तियां विकसित हो गयीं। नदियों को जो सौभाग्य श्रीकृष्णावतार में मिला, वह किसी अन्य अवतार में नहीं मिला। इसी अवतार में श्रीयमुनाजी श्रीकृष्ण (Shriyamunaji, Shri Krishna) की चतुर्थ पटरानी बनेंगी और इसी अवतार में श्रीकृष्ण ग्वाल-बालों और गोपियों के साथ यमुनाजी में क्रीड़ा करेंगे, इसी अवतार में श्रीकृष्ण कालिया नाग का दमन कर कालीदह को विषहीन करेंगे–यही सोचकर सरोवरों ने कमलों के बहाने अपने हृदय को श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित कर दिया।

वन प्रान्त में भी वृक्षों ने अपनी सजावट में कोई कसर नहीं छोड़ी है। सभी वृक्षों ने अपने पुराने पत्ते तुरन्त फेंक दिए और नये-नये कोमल अरुण पल्लवों को धारण कर लिया है। जूही, चमेली, मालती आदि लतायें केवल खिले हुए फूलों से ढक गयीं। रात्रि के समय सोये हुए भ्रमर स्वप्न में किसी गुप्त संवाद को सुनकर जग गये और मधुर गुँजार करते हुए पुष्पों के पास जाकर आनन्द-समारोह का कारण पूछने लगे। घोंसलों में सोये हुए पक्षी भ्रमरों की झंकार से जग गये और मधुर काकली करते हुए सारे वनप्रान्त को निनादित कर इस आनन्द का कारण जानने के लिए इधर-उधर वृक्षों पर उड़ने लगे। आम्रवृक्ष में असमय मौर लग गए जिन्हें देखकर कोयलों के आनन्द की सीमा न रही। इस प्रकार सम्पूर्ण वनप्रान्त ‘आनन्दभवन’ बन गया।

परम शीतल-मन्द व सुगन्धित वायु सबको सुख प्रदान करने लगी। वायु आनन्दोन्मत्त होकर वृक्षों के मस्तकों, स्रियों के आँचलों व महलों की पताकाओं के साथ क्रीड़ा करने लगी।

पृथ्वी, जल, तेज, वायु व आकाश–ये पंचभूत मिलकर ही जगत का सारा काम करते हैं। आज जब भगवान श्रीकृष्ण के शुभागमन से ये चारों आनन्दोन्मत्त हो रहे हैं तो अग्नि कैसे पीछे रहती। इसलिए ब्राह्मणों के हवनकुण्डों (Havan Kunds) की अग्नियां जो कंस के अत्याचार से बुझ गयीं थीं, जल उठीं। उन्हें जलाना नहीं पड़ा वरन् लकड़ी के अन्दर से अपने आप ही प्रज्वलित होकर अपनी लौ को हिला-हिलाकर नाचने लगी। कृष्णावतार में श्रीकृष्ण ने अग्नि को अपने मुख में धारण किया। इस भावी सुख को याद करके ही अग्निदेव शांत होकर प्रज्वलित हो उठे।

श्रीकृष्ण के शुभागमन का महाआनन्द केवल बाह्य जगत को ही आनन्दित नहीं कर रहा बल्कि अब ये लोगों के अन्तर्मन को भी प्रमुदित करने लगा–साधुओं, भगवद्भक्तों के हृदय सहसा आनन्द से भर गये। उनके नेत्रों से प्रेमानन्द के अश्रु बहने लगे और वे सब इस आनन्द के नित्य स्थित रहने के लिए भगवान से प्रार्थना करने लगे। श्रीकृष्णचन्द्र के शुभ आगमन की सूचना पाकर असुरों के अत्याचारों से पीड़ित देवताओं के हृदय में शक्ति और आशा का संचार हो गया। बादल से गिरी हुयी जल की बूंद मेघप्रिय चातक को जैसी प्रिय होती है, वैसी अन्य किसी को नहीं होती। इसीतरह अनन्य भक्तों के आनन्द का स्त्रोत तो केवल भगवान के चरणकमल ही होते हैं। आज भगवान के शुभागमन का प्रकाश होने पर जो आनन्द अनन्य भक्तों के हृदय में हुआ वह भोग-कामना-विलासी हृदय के लोगों को नहीं मिला। बल्कि प्राकृतिक सौंदर्य को देखकर वे अधिक विलासी हो गए और उनका ताप और भी अधिक बढ़ गया।

भगवान के जन्म/आविर्भाव का महाआनन्द जब पृथ्वीलोक से उठकर अपने आप स्वर्गलोक में पहुँचा तो स्वर्ग में देवताओं की असंख्य दुन्दुभियां एकसाथ बज उठीं। देवसभा के संगीतज्ञ हाहा, हूहू, तुम्बरू आदि गन्धर्व और किन्नरगण दुन्दुभियों के इस मधुर नाद से जाग्रत हो गये और परमानन्द से भरकर श्रीभगवान का गुणगान करने लगे। सिद्ध और चारणगण भी स्तुति करने लगे। इस प्रकार गन्धर्व-किन्नर और सिद्ध-चारणों के मधुर सात्विक गीतों को सुनकर उर्वशी, मेनका, रम्भा आदि अप्सराएं व विद्याधरियाँ उत्साह में भरकर नृत्य करने लगीं।

इस प्रकार सारा स्वर्ग गान और नृत्य की मधुर ध्वनि से भर गया। सभी देवता सहसा जग गए और फिर भगवान की प्रेरणा से आनन्दमग्न होकर तुरन्त नंदभवन में जा पहुँचे और स्वर्ग के पारिजात पुष्पों को चुन-चुनकर पृथ्वी पर बरसाने लगे। और देवता और मुनिगण (Gods And Sages) पृथ्वी के सौभाग्य की सराहना करने लगे। आज चौदह भुवन आनन्द से नाच उठे हैं। इस आनन्द की लहर से सातों समुद्र भी प्रभावित हो गए और अपनी ऊँची-ऊँची लहरों से गर्जना करते हुए मानो नृत्य करने लगे। भगवान विष्णु की पत्नी लक्ष्मीजी समुद्र की पुत्री हैं, इसी सम्बन्ध को–कि भगवान मेरे दामाद हैं, समुद्र इठलाता हुआ गर्जना कर रहा है। समुद्र को इठलाते देखकर मेघ भी पीछे कैसे रहें। उन्होंने भी गरज-गरजकर कहा–’अरे ! हमारा और उनका तो वर्ण ही एक है, वह भी नीलश्याम और हम भी नीलश्याम। अत: वे हमारे सखा हैं।

इसी समय भाद्रप्रद मास की अँधियारी रात्रि में सबके हृदयों में रहने वाले भगवान श्रीकृष्ण देवरूपिणी देवकी के गर्भ से वैसे ही प्रकट हुए जैसे पूर्व दिशा में सोलह कलाओं से परिपूर्ण चन्द्र का उदय हुआ हो।

कल्याणदायक भाद्रप्रदमास, कृष्णपक्ष (Bhadrapradama, Krishna Paksha) स्वयं कृष्ण से सम्बद्ध है, ब्रह्मा का नक्षत्र रोहिणी, अष्टमी तिथी पक्ष के बीचोंबीच पड़ती है, निशानाथ की प्रिय रात्रि, उसका भी संधिस्थल, निशीथ यतियों का सन्ध्याकाल है, बुधवार, धर्मप्रधान वृष लग्न, ऐसे शुभ अवसर पर रात्रि के घोर अंधकार को चीरकर महान प्रकाश का उदय हुआ। चार भुजा, चार आयुध, कमल सी खिली दृष्टि, वस्त्र-अलंकारों से युक्त, यह कोई साधारण बालक का लक्षण नहीं? यह अद्भुत असाधारण है। जहां कृष्ण नाम का संकीर्तन होता है वहां से सब पाप-ताप तत्काल दूर भाग जाते हैं, तब स्वयं भगवान जहां पृथ्वी की पीड़ा मिटाने के लिए अवतीर्ण होते हों, वहां वार, तिथि, नक्षत्र, योग आदि के अनन्त शुभ सूचक होने में कौन-सी आश्चर्य की बात है।

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