गुरूदत्त की फिल्म Pyaasa, बाज़ार और सुशांत सिंह राजपूत

1957 में महान डायरेक्टर गुरुदत्त ने अबरार अल्वी की कहानी पे एक फ़िल्म बनाई थी। फ़िल्म का नाम था ‘प्यासा’ (Pyaasa) प्यासा फ़िल्म के नायक की भूमिका में खुद गुरुदत्त ही थे। कहानी थी एक नाकाम शायर विजय की, जिसका लिखा कोई नहीं छापना चाहता। विजय से एडिटर मिलते भी नहीं, और दुकानदार उसकी हालत जानते हुए उसे उधार देने से भी कतराते हैं।

उसके कॉलेज की प्रेमिका ने उसे असफल मान कर, एक बड़े पब्लिशर से शादी कर ली थी। विजय को उसी के ऑफिस में नौकर का काम करना पड़ता है।

तमाम नाकामियों के बीच बस एक व्यक्ति था जो विजय के प्रेम में था। वो व्यक्ति होती है ‘गुलाबो'(वहीदा रहमान), एक वेश्या जिसे गलती से विजय की कविताओं की डायरी मिल जाती है। और वो उन कविताओं को गाकर अपने ग्राहकों को आकर्षित करती है। उसे जब मालूम पड़ता है कि ये डायरी विजय की है तो वो उसके प्रेम में पड़ जाती है।

इसी बीच विजय एक रोज़ अपना कोर्ट एक भिखारी को देता है, और वो भिखारी रेलगाड़ी के नीचे आ जाता है। विजय भी उसे बचाने के चक्कर में नदी में गिर लापता हो जाता है। भिखारी की लाश को लोग विजय मान कर उसे मृत घोषित कर देते हैं।

इस बीच गुलाबो अपने पैसे से विजय की कविताओं को प्रकाशित कराती है। और उसकी किताबें हाथों हाथ बिकनी शुरू हो जाती हैं। उसका दुःखद जीवन अब रोमांस की वस्तु बन जाता है। उसे एडिटर और पब्लिशर किताब बेचने के लिए इस्तेमाल करते हैं। उसकी मृत्यु को भी एक रोमांटिक प्रोडक्ट (Romantic Product) बनाकर बाजार में बेच दिया जाता है।

कहानी का कुछ हिस्सा सुशांत सिंह की कहानी से कितना मेल खाता है। उनकी मृत्यु की ख़बर आते ही पहले न्यूज़ चैनलों ने उसे एक प्रोडक्ट बना कर दिन रात न्यूज़ के नाम पर उसे बेचा। फिर सिनेमा से जुड़े लोगों ने उनके नाम के पीछे छुप कर अपना उल्लू सीधा किया।

सिनेमा और न्यूज़ के बाद बारी आयी सोशल मीडिया की जिसने सुशांत सिंह को ट्रेंडिंग टॉपिक (Trending Topic) जानकर जाने कितने वीडियो बना डाले, न्याय बहाना भर था। बिहार के किसी भोजपुरी गायक ने उनके नाम पे गाना तक बना डाला।

तो बात ये है कि हमें अपने नायक मृत अच्छे लगते हैं। और बाज़ार कुछ भी बेच सकता है। चे ग्वेरा जिन्हें अमेरिका में कभी पसंद नहीं किया गया, अब टीशर्ट बन कर हर जगह पसंद किया जा रहा है। क्या पता कुछ दिन में भारत में सुशांत सिंह की फ़ोटो वाली टीशर्ट भी बिकने लगे।

बाज़ार की भावना नहीं होती पर वो इंसानी भावनाओं को अच्छे से समझता है। मरे हुए व्यक्ति के इर्द गिर्द एक रोमांस बुन कर उसे भुना लेना बस बाजार कर सकता है।

बहरहाल प्यासा की कहानी का नायक एक साल बाद एक हॉस्पिटल में उठता है। और जब वो ये बताता है कि वो प्रसिद्ध शायर विजय है तो उसे पागलखाने में डाल देते हैं।

पब्लिशर्स को पता चलता है कि वो ज़िंदा है पर वो उसे किताब की बिक्री में हिस्सा नहीं देना चाहते। और उन्हें लगता है उसके ज़िंदा होने से उसकी रोमांटिक कहानी पर असर होगा। सो वो पैसे देकर उसे पागलखाने से निकलने नहीं देते।

वो किसी तरह पागलखाने से निकलता है तो उसे दिखता है कि उसके सम्मान में सिटी हॉल में जलसा रखा गया है। जिसमें उसके नाम पर कसीदे गढ़े जा रहें हैं। विजय घृणा से भर उठता है और अपनी कविता गाने लगता है, " ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है?"।

भीड़ उसे पहचान लेती है। शहर में बात फैलती है कि कोई है जो विजय होने का दावा कर रहा है। पब्लिशर्स उसे अब बोलते हैं कि कल के जलसे में वो घोषणा कर दे कि वो विजय है, और वो सारा मान सम्मान उसका हो जाएगा।

पर अगले रोज़ विजय स्टेज पर जाकर कहता है कि वो विजय नहीं है और उसे पैसे दिये गये हैं विजय बनने के लिए। भीड़ गुस्से में उसे और पब्लिशर्स को बहुत मारती है।

विजय मार खाकर अपने कॉलेज की प्रेमिका के पास पहुँचता है। जो उससे पूछती है कि क्यों उसने वो सब ठुकरा दिया, जो वो ताउम्र पाना चाहता था। विजय कहता है कि वो उस दुनिया में वापिस नहीं आना चाहता। जो उसे मरने के बाद ही समझ पायी और पहचान पायी।

सिनेमा के आखिरी शॉट में विजय गुलाबो के कोठे पर जाकर उसे अपने साथ चलने कहता है और वो लोग शहर छोड़ निकल जाते हैं।

अगर हमारे समाज के मृत नायक अगर वापिस आ सकें तो क्या वो इसे विजय की तरह ठुकराना मुनासिब समझेंगे? हम किसी भी व्यक्ति को उसके जीवनकाल में सहज होकर स्वीकार क्यों नहीं पाते। या फिर एक समाज के रूप में हम मरे लोगों में रोमांस क्यों ढूंढते हैं। मृत्यु दुःखद होती है, उसे दुख में ज्यादा कुछ ढूंढने की कोशिश क्यों? और जो भी उसे दुख से निकले उसे बेचने कि कोशिश क्यों?

पर मानव समाज लाखों वर्षों के एवोल्यूशन से बना है। एक रोज़ हमारी भावनाओं का भी एवोल्यूशन होगा। हमें ये पीढ़ी दर पीढ़ी सीखना होगा कि, हमें हर चीज़ बाजार में नहीं बेचनी चाहिये। हम दुखों को सहेज सकते हैं, उससे सीख सकते हैं। तब शायद हमारे नायकों को नायक होने के लिए मृत्यु का सहारा नहीं लेना पड़ेगा।

(ये उन सभी लोगों के पक्ष में जो सुशांत सिंह राजपूत के लिए न्याय चाहते हैं। दुखों का न्याय होना जरूरी है बाज़ार नहीं)

साभार- किताब गंज

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