Gandhi Jayanti 2021: यथास्थितिवाद का कोहरा और महात्मा गांधी

Gandhi Jayanti 2021: महात्मा गांधी पर एक दक्षिणपंथी मित्र की वो टिप्पणी देखकर मैं चकित तो नहीं हुआ, किंतु सोच में अवश्य डूबा। मित्र का आरोप था कि महात्मा गांधी यथास्थितिवादी थे और ठोस निर्णय नहीं ले पाते थे (क्या ही अचरज है कि महात्मा पर ठीक यही आरोप आम्बेडकरवादी और धुर वामपंथी (Ambedkarites And Extreme Leftists) भी लगाते हैं)। मैं सोचने लगा कि वे महात्मा गांधी से किस प्रकार के ठोस-निर्णयों की अपेक्षा करते हैं? वे चाहते हैं कि औपनिवेशिकता के प्रश्न पर गांधीजी मदन, भगत और सुभाष जैसी रैडिकल निर्णयशीलता दिखलाते और मुसलमानों के प्रश्न पर तिळक और सावरकर जैसी। किंतु क्या वे ये भी चाहते कि वर्ण-व्यवस्था के प्रश्न पर गांधी पेरियार और आम्बेडकर जैसी निर्णयशीलता (Decision-Making) दिखलाते? इस एक बिंदु पर आकर सभी परिप्रेक्ष्य गड़बड़ हो जाते हैं।

मित्रों की महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) से ये शिकायत है कि उन्होंने बम-बंदूक़-पिस्तौल से अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ निर्णायक लड़ाई नहीं की। उन्होंने वैसा रास्ता क्यों नहीं चुना, इसका उत्तर उन्होंने 1908 में ही हिन्द स्वराज में अत्यंत पारदर्शिता के साथ दे दिया था। किंतु उनसे अपेक्षा ये की जाती है कि पानीपत के जैसी किसी निर्णायक लड़ाई में वे भारत के सेनापति की तरह अंग्रेज़ों को परास्त करते और नरमुण्डों की माला पहनकर अट्‌टहास करते। उसके बाद मुसलमानों के प्रश्न पर वो कौन-सी नीति अपनाते?

बँटवारे के प्रश्न पर मित्रों की महात्मा गांधी से ये अपेक्षा है कि वे एक-एक मुसलमान को भारत से बाहर खदेड़ देते, जबकि ये सैंतालीस के गांधी तो क्या, आज के महाबली भी नहीं कर सकते हैं। किंतु इनके इतर भारत की जो बुनियादी समस्यायें हैं, उनके प्रति वो महात्मा गांधी से किस प्रकार के रवैये की अपेक्षा रखते हैं? इस पर भी कोई दक्षिणपंथी मित्र अगर प्रकाश डाले तो श्रेयस्कर होगा कि यदि वो गांधीजी के यथास्थितिवाद से आहत होते हैं तो क्या वो गांधीजी को वर्ण-व्यवस्था के हितपोषक के रूप में देखकर संतुष्ट होते या सामाजिक-क्रांति के अग्रदूत के रूप में उनकी कल्पना करते? क्योंकि- प्रसंगवश- मैं तो जब दक्षिणपंथियों (Right Wing) के नायकों की सूची देखता हूँ तो उसमें मुझको कोई सामाजिक-क्रांति का नायक या सुधारक नहीं दिखलाई देता। पूछा जाना चाहिए कि तब यथास्थितिवादी कौन है?

कल्पना कीजिये अगर भारत में कभी तुर्कों-मंगोलों या यूरोपीय औपनिवेशिकों (European Colonists) का आगमन नहीं होता, और ग्यारहवीं सदी की यथास्थिति बहाल रहती, तब उस कथित स्वर्णयुग में भारत-देश अपने दोषों के लिए किसे ज़िम्मेदार ठहराता? क्योंकि दोषों की कोई कमी नहीं थी। होती तो ढाई हज़ार साल पहले गौतम बुद्ध प्रासंगिक नहीं हुए होते। भारत की अनेक बीमारियों के मूल में जाति-व्यवस्था, वर्ण-व्यवस्था, ब्राह्मणवाद, एक विचित्र क़िस्म की आनुष्ठानिकता, पाखण्ड और कर्मकाण्ड, आकाशवृत्ति, आलस्य, आत्ममुग्धता, क्षेत्रवाद और थोथा जातीय गौरव है। महात्मा गांधी को यथास्थितिवादी कहने वाले इन सबके प्रति उनसे किस प्रकार के रवैये की अपेक्षा रखते हैं?

वास्तव में, गोखळे-तिळक द्वैत से लेकर जिन्ना-सावरकर (Jinnah-Savarkar) और नेहरू-पटेल द्वैत तक- जिसमें त्रिकोण की तीसरी भुजा की तरह आम्बेडकर दिखलाई देते हैं- के बीच एक गांधी ही थे, जो भारत-देश की नियति के प्रति एक रचनात्मक, संश्लिष्ट और व्यापक दृष्टि रखते थे। गांधी के धैर्य की कोई सीमा नहीं थी जबकि वे खण्डित-दृष्टि रखने वाले अधीरों के बीच खड़े थे।

गांधी जानते थे- और इकलौते वे ही ये जान पाये थे- कि जाति, समुदाय, भाषा, प्रान्त में बँटा ये महादेश विखण्डन और गृहयुद्ध के लिये जितना तत्पर है, उतना एकत्व और समरसता के लिए नहीं, और एक महान-प्रेरणा ही उसे एक सूत्र में पिरो सकती है। ये प्रेरणा एक वैसी भारतीय-चेतना में निहित थी, जिसके मूल में उग्र राष्ट्रवाद, सांस्कृतिक दर्प या जातिगत श्रेष्ठता नहीं, बल्कि उजले चरित्र वाली आध्यात्मिक-नैतिकता थी।

महात्मा गांधी उस तरह से आज़ादी की लड़ाई नहीं लड़ रहे थे, जिस तरह से कोई केंद्र में सत्ता-परिवर्तन की चाह रखता है, जैसी प्रवृत्तियां आज की राजनीति में भी जस की तस चली आयी हैं। वे बुनियादी इकाइयों से बदलाव की शुरुआत करना चाहते थे और उनके यहाँ सबसे बुनियादी इकाई स्वयं व्यक्ति था। स्वराज और सर्वोदय कोई पारलौकिक व्यवस्थायें (Transcendental System) नहीं थीं, जो किसी महानायक के द्वारा ऊपर से देश पर आरोपित की जातीं। इसके बनिस्बत इन्हें हरेक व्यक्ति के भीतर से निकलकर देश में व्याप जाना था। ये एक असम्भव स्वप्न था और महात्मा गांधी ये भली प्रकार जानते थे, इसके बावजूद उन्होंने इसके लिये स्वयं को होम किया, क्योंकि इससे कम पर राज़ी होना भारत की आत्मा के साथ समझौता करने जैसा था।

ये एक ऐसी व्यापक और विशिष्ट राष्ट्रीय-चेतना थी, जो ना नेहरू में दिखती है ना आम्बेडकर में, ना तिळक में दिखती है ना सावरकर में। जिसे गांधी का यथास्थितिवाद या समझौतावाद (Compromising) कहा जाता है, वो वास्तव में उनका अगाध धीरज और गहरी समझ है। क्योंकि उनसे बेहतर इस बात को कौन समझता था कि क्रोध, कुंठा, आवेश में लिये गये निर्णय कभी भी सत्यपूर्ण और अहिंसक नहीं हो सकते और गांधी इन्हीं दो मूल्यों की अहर्निश उपासना किया करते थे।

ये महास्वप्न किसी वैसी क्रांति से नहीं पाया जा सकता था, जिसकी कल्पना इंक़लाब और उसके विरोधी दोनों ही आज करते पाये जाते हैं। उनका कार्यक्रम दीर्घकालीन था और उनके अपने जीवनकाल में निपटने वाला नहीं था, लेकिन आप पायेगें कि उनकी दृष्टि में इसके सिवा कोई दूसरा विकल्प था भी नहीं।

जब हम ऊपर से थोपे गये कथित महानायकों से ऊब जावेंगे, चरित्र की उज्ज्वलता को देखने योग्य एक निरंजन-दृष्टि विकसित कर सकेंगे और सत्ता व उत्क्रांति जैसी चीज़ों को एक व्यापक-परिप्रेक्ष्य में देख सकेंगे, तब जाकर हम समझेंगे कि आधुनिक भारत के इतिहास अगर कोई एक व्यक्ति यथास्थितिवादी नहीं था, तो वो महात्मा गांधी थे।

गांधी एक बहुत महान रूपांतरण की ओर भारत को ले जाना चाहते थे। जबकि उनके जो समकालीन बहुत निर्णयशीलता से भरे दिखलाई देते हैं, वो उनकी तुलना में एक पूर्वनिर्धारित व्यवस्था को- फिर चाहे वो वाम-प्रणीत हो या दक्षिण-प्रणीत, पश्चिमी हो या सनातनी- भारत में प्रतिष्ठित कर निश्चिंत हो जाना चाहते थे। अपनी मृत्यु की पूर्व-संध्या पर महात्मा गांधी केवल कांग्रेस के विघटन पर चिंतन नहीं कर रहे थे- जैसा कि आज दक्षिणपंथियों के द्वारा कुप्रचारित किया जाता है- बल्कि वे एक ऐसी केंद्रीकृत राज-प्रणाली के प्रति अपने संशय को प्रकट कर रहे थो, जो समाज में गुणात्मक बदलाव लाये बिना- एक चक्रवर्ती सम्राट की शैली में- उस पर एक व्यवस्था को आरोपित करना चाहती थी।

हज़ार साल में भी ये व्यवस्था कभी सफल नहीं हो सकती थी, ना हो सकी है- जैसा कि आप आज अपने वर्तमान में देख सकते हैं। जिस व्यक्ति ने सत्य के निरंतर प्रयोगों को अपना जीवन-आधार बनाया हो, वो यथास्थितिवादी भला कैसे हो सकता है? यथास्थितिवादी तो वो हैं, जो अपने तात्कालिक-हितों से परे एक व्यापक परिप्रेक्ष्य को देखने में सक्षम नहीं होते।

महात्मा गांधी की परख करने के लिये बहुत गम्भीर, पारदर्शी, निष्कलुष चेतना और मर्मबेधी-तलस्पर्शी दृष्टि की आवश्यकता है बंधु, अपनी अधीरताओं और उग्रताओं से आप कभी उन्हें उलीच नहीं पाओगे, आज के दिन बस इतना ही स्मरण रखियेगा।

साभार - सुशोभित

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