Afghanistan: इंसानियत की क्रबगाह बनता अफगानिस्तान

ये एक ऐतिहासिक, दिलचस्प, अफ़सोसनाक, उत्साहजनक घटना ज़रूर हो सकती है लेकिन अभूतपूर्व नहीं। ना अफ़ग़ानिस्तान (Afghanistan) के लिए, ना तालिबान के लिए और ना अमेरिका के लिए इसमें कुछ नया है। यहाँ तक कि जो कुछ 15 अगस्त को घटा वो चौंका भी नहीं रहा है। थोड़ी बहुत अनिश्चिंतता सिर्फ़ इसे लेकर थी कि जो हुआ वो किस तारीख़ तक हो जायेगा। बहरहाल, अब हो गया है तो कुछ सवाल उभर रहे हैं और कुछ ने पहले के मुक़ाबले ज़ोर पकड़ा है। इनका जवाब आनेवाले समय में इतिहासकार, कूटनीतिक (Diplomatic), राजनेता, काबुल में घटित सत्ता परिवर्तन की घटना में शामिल तत्व देंगे। बावजूद इसके कुछ सवालों के जवाब हमेशा कयास ही लगेंगे। मसलन-

1. क्या ट्रंप की सावधानीपूर्वक शुरू की गई सुलह वार्ता को आख़िरी वक़्त में बाइडेन ने मिसहैंडल किया?

2. क्या जो कुछ अफ़ग़ानिस्तान में हुआ उसका अनुमान लगा पाने में सीआईए बुरी तरह विफल रही?

3. क्या अफ़ग़ानिस्तान की नागरिक सरकार के ढहने का अंदाज़ा बाइडेन को था और दुनिया की नज़रों से बचाकर उन्होंने तालिबान से जो असल समझौता किया, हुआ वही है?

4. क्या तालिबान ने अमेरिका के लौटने तक वार्ता का ढोंग रचाया, तय तारीख़ों तक जानबूझकर अफ़ग़ान सरकार से किसी समझौते तक नहीं पहुँचे और इस बीच चीन-पाकिस्तान से हवा पानी लेकर ज़मीन पर खेल कर दिया?

5. क्या इस पटकथा का असली लेखक चीन है जिसे पता था कि अमेरिका को अब लौटना ही है लेकिन अमेरिकापरस्त अफ़ग़ान सरकार को अपनी ओर मिलाने से आसान पश्तून डोमिनेटिड तालिबान (Pashtun Dominated Taliban) को सरकार तक पहुँचाना और फिर उससे डील करना है?

6. क्या चीन के इस खेल में पाकिस्तान ने सक्रिय रूप से और रूस ने एक कदम पीछे रहकर अमेरिका से शीत युद्ध में अपनी अफ़ग़ान हार का बदला ले लिया है?

7. क्या पूरे घटनाक्रम में शुरूआती तौर पर दूर रहकर या दूर रखे गये भारत ने आख़िर में अफ़ग़ान सरकार को बचाने या तालिबान से बात करने के कथित प्रयास किए वो सभी असफल रहे और इस तरह इक्कीसवीं सदी के ‘ग्रेट गेम’ में भारतीय कूटनीति को झटका लगा? 

ये सारे ऐसे सवाल हैं जिनका बिना भावुक हुए जवाब तलाशना ज़रूरी है और ये किसी एक व्यक्ति के बस का नहीं। ना ही किसी सीमित समय में ऐसा होगा। 'द ग्रेट गेम' से वाक़िफ़ हर इंसान जानता है कि अचानक होती दिखनेवाली जियोपॉलिटिकल घटनाएँ (Geopolitical Events) अचानक होती नहीं और ये तो फ़िलहाल अभी कई पर्दों में छिपकर खेला गया नाटक है। वैसे इन सवालों के इतर कुछ बातें ऐसी हैं जिनके भविष्य में घटने को लेकर अधिकांश विद्वानों में मतैक्य है।

1. अमेरिका का प्रभाव एक बार फिर सेंट्रल एशिया में घट जायेगा लेकिन इस बार रूस नहीं चीन उसका प्रतिस्पर्धी बनेगा। विशेषकर वो परंपरागत मिलिट्री प्रभुत्व नहीं बल्कि आर्थिक माध्यमों से शासन करेगा। (इस बीच अमेरिकी प्रशंसक ना होने के बावजूद दुआ है कि बाइडेन अमेरिका के गौर्बाच्योव (gorbachev) ना साबित हों क्योंकि इसमें भी दुनिया का भला नहीं है)

2. अमेरिकन सिविल सोसायटी और रिपब्लिकन्स ने अगर ठीक से बरता तो इस मुद्दे के चलते डेमोक्रेट्स अगले चुनाव में सत्ता से बाहर होंगे। पहले भी असफल वापसियों के नतीजे तत्कालीन सरकारों ने भुगते हैं और ये वापसी तो अमेरिकी इतिहास का सबसे बड़ा डिज़ास्टर बतायी जा रही है।

3. अफगानिस्तान की तालिबानी सरकार भले अपने वादे के अनुरूप कुछ उदारता बरते लेकिन धार्मिक कट्टरपंथ के लिये अफ़ग़ानिस्तान फिर से उपजाऊ ज़मीन बनेगा जिसका नुक़सान निकट भविष्य में भारत और ईरान झेल सकते हैं लेकिन दूरगामी हानि पाकिस्तान ही झेलेगा। लापरवाही बरती तो चीन भी। इमरान खान की पाकिस्तान को एक विरासत ये भी होगी कि उन्होंने अफ़ग़ान तालिबान की मदद करके पाकिस्तान में कमज़ोर हुए तालिबान को उम्मीदें दीं।

4. रूस अब अफगानिस्तान से सुरक्षित दूरी बनाकर रखेगा। इसके दो कारण हैं। एक तो वो पहले ही अपने हाथ जलाकर देख चुका है और दूसरा ये कि अमेरिका से बदले के बाद उसकी यहाँ दिलचस्पी समाप्त हो चुकी है। संसाधनों के दोहन की रेस में पहले ही चीन का प्रभुत्व है। बाक़ी सबके लिए संभावना वो खत्म कर ही देगा। तालिबान को सत्ता में लाने की इतनी क़ीमत तो ज़िनपिंग वसूलेंगे।

5. दुनिया में उठने बैठने के लिए तालिबान अपना रूप बदलेगा। उसका राजनीतिक और कूटनीतिक विंग पहले से अधिक सधी चालें चलेगा। उसका स्वरूप कुछ कुछ सऊदी अरब जैसा हो सकता है जहां सरकार चला रहा वर्ग धार्मिक मामलों में अधिक हस्तक्षेप नहीं करता।

6. तालिबान सत्ता हस्तांतरण शांति से चाहता है क्योंकि लड़ने के अपने नुक़सान हैं। पहले ही गनी ने खून खराबा बचाने के लिये मुल्क छोड़कर भागना उचित समझा। अब तय होगा कि कौन कैसे तालिबान को सत्ता सौंपे। तालिबान आराम से हार चुकी सरकार को मौक़ा देंगे ताकि उनके धैर्य और शांति की कथित चाह को देख दुनिया मुरीद हो जायें।

7. अफ़ग़ानिस्तानी समाज एक बार फिर उसी पिछड़ेपन में जीने को अभिशप्त होगा जिसे वो डिज़र्व नहीं करता। महिलाओं, शियाओं, ग़ैर पश्तूनों, सिखों के प्रति तालिबान का रवैया बहुत जुदा नहीं हो सकता।

सवाल और आशंकाएँ इससे भी अधिक हैं। समय के साथ वो और बढ़ेंगी। अभी अमेरिकी विदेशमंत्री ब्लिंकन अपने राष्ट्रपति की लाइन दोहरा रहे हैं। कह रहे हैं कि अफ़ग़ानिस्तान में जो कुछ हो रहा है उसे हमारी विफलता नहीं कहा जा सकता। सच ये है कि दुनिया सब जानती है। ये चेहरा छिपाने और ज़िम्मेदारी से भागने की वो कला है जिसमें सारे नेता पारंगत होते हैं।

कुछ तथाकथित उद्देश्यों का ढिंढोरा पीटकर एक मुल्क पर हमला करना। कुछ दिन वहाँ टिके रहना। कठपुतली सरकारें बनाना। जनता को पिसते देखना लेकिन उसके नाम पर जितना हो सके संबंधित देश के संसाधनों का दोहन करना और जब परिस्थिति हाथ से बाहर होती लगे तो अधूरे में भाग आना पुरानी अमेरिकी अदा है। उसकी अदा के बहुत शिकार है।

अमेरिका ने हालिया मामले में 9/11 के खलनायक को पकड़ना तय किया था। बहुत साल पहले पकड़ा भी जा चुका था। वो भी अफ़ग़ानिस्तान नहीं बल्कि उस पाकिस्तान में जो इस मिशन में सबसे बड़ा साथी बनने की कीमत अमेरिका से आर्थिक तौर पर वसूलता रहा, लादेन को छिपाए रहा और उसी पैसे में से काफी तालिबान पर लुटाता रहा ताकि तालिबान उसके दबाव में भी रहे और पूरी तरह खत्म ना होने के चलते अमेरिकी खैरात बंद ना हो।

आईएसआई के पूर्व चीफ़ ने साफ़ कहा था कि हमने अमेरिका के पैसों से अमेरिका को हराया है। सवाल ये है कि लादेन को मारने के बाद अमेरिका तुरंत वापस क्यों नहीं आ गया? क्या हासिल करने को रुका रहा और अपने सैनिकों का बलिदान देता रहा? यदि वो स्थिर अफ़ग़ानिस्तान और बर्बाद तालिबान में निवेश कर रहा था तो उसे ये नहीं मिला स्पष्ट है।

फिर अपना एंबेरेसमेंट छिपाने के लिए बाइडेन-ब्लिंकन ये ना कहें तो क्या कहें कि हम सफल रहे। बाकी यही सवाल उनसे शहीद अमेरिकी सैनिकों के परिवार भी पूछ रहे हैं कि पोस्ट लादेन अफ़ग़ानिस्तान में हम क्यों झख मार रहे थे और मार रहे थे तो पूरी क्यों नहीं मारी?

यूँ तो छात्र, पत्रकार. कूटनीतिज्ञ और इतिहासकार वगैरह अंतर्राष्ट्रीय जगत में घटनेवाली घटनाओं को केवल विषय के तौर पर देखते हैं। आदर्श स्थिति होनी भी यही चाहिए लेकिन अफ़ग़ान संकट एक मानवीय संकट है इससे कौन इनकार कर सकता है। अफ़ग़ान फिल्म निर्देशक सहारा करीमी का लिखा हम सबने पढ़ा है। ताज़ा वीडियोज़ भी देखे हैं जिनमें तालिबान वही दोहरा रहा है जो करता रहा।

हाल ही में एक विदेशी न्यूज़ चैनल पर देखा कि एक काबुली लड़की फुटपाथ पर जा रही थी। उसने टीवी रिपोर्टर से माइक पर बड़ी बहादुरी से कहा कि वो मुझे पहचान कर मार डालें तो भी मैं कहूँगी कि हम कहीं नहीं जा रहे। हम औरतों ने बहुत मुश्किल से ज़रा सी आज़ादी पाई थी.. हम यहीं रहकर लड़ेंगे जब तक मर नहीं जाते... और वाक़ई इसके बाद आप उन वीडियोज़ को देखिए जिनमें लोग संबंधियों के शव कारों में ले जा रहे हैं। पाकिस्तान में घुसने के लिए कितने परिवार कसमसा रहे हैं। पार्कों में बूढ़े और बच्चे टेंट में दुआ कर रहे हैं कि ज़िंदगी बची रहे। ये देखकर हो सकता हैं कि आपमें से कई यूएन को पुकारें लेकिन अभी उसे आने में देर लगेगी.. हमेशा की तरह।

वैसे कई दोस्त कह रहे हैं कि पैसा और हथियार मिल भी जाये तो भी ज़बरदस्ती किसी देश पर बिना जनसमर्थन के कब्ज़ा करना असंभव है। दरअसल वो कहना चाह रहे हैं कि अफ़ग़ानिस्तान की जनता तालिबान के साथ है। मुझे उनसे अधिक कुछ नहीं कहना सिवाय इसके कि फिर उन्हें पैसे, बंदूक़ और क़बीलाई समीकरण तीनों की ताक़त का सही अंदाज़ा नहीं है। इस बात को रहने दें तो भी कॉन्फ़्लिक्ट में फँसे किसी मुल्क में कैसे तय होगा कि कौन किसे पसंद कर रहा है जब तक कि वहां निष्पक्ष चुनाव ना हों और चुनाव तो तालिबान कराते नहीं। वैसे चुनाव का भी ऐसा है कि तथाकथित लोकतांत्रिक देशों के चुनाव तक में खूब धांधली हो जाती हैं और असल में लोकप्रिय प्रत्याशी आरोप लगाकर शांत रह जाने को मजबूर होते हैं। फिर ये तो अफ़ग़ानिस्तान है और हुकूमत में तालिबान है जिसे चुनावों में यक़ीन नहीं। यूं होने को चुनाव चीन में भी हो रहे हैं।

इसके अलावा क्या बहुसंख्यक उन्मादियों के सामने अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों को लुटते देखना इंसानियत और इंसाफ़ है? मुझे उम्मीद है कि कोई ये न कहेगा कि तालिबान अपने यहाँ अल्पसंख्यकों और महिलाओं को पूरे हक़ और इज़्ज़त देता रहा है या देगा। पहले के तालिबान की छोड़िए, अब वाली तस्वीरें और घटनाएँ भी उन पर भरोसा नहीं बैठने दे रही।

इसके अलावा कुछ ऐसे भी दिखे जो कह रहे हैं कि उनका छोड़िए अपना देश देखिए। ये सलाह वाक़ई अच्छी है और यदाकदा हमने भी दी है मगर कुछ लोग जो अज्ञात कारणों से तालिबान के शासन से खुश दिख रहे हैं उन्होंने इसे ढाल बना लिया है। वो ज़रूर अपने ही देश की चिंता करें लेकिन इतिहासकार, कूटनीतिज्ञ, मानवाधिकारों की फ़िक्र करनेवाले, दुनिया को वाक़ई परिवार समझनेवाले हर देश की बात कर लेते हैं सो उन्हें चिंता करने दें।

इसके अतिरिक्त दूसरे देशों के हालात पर बात करना इसलिए भी ज़रूरी है ताकि उन्हें देखकर अपने यहाँ सुधार लाया जा सके, हम सीख सकें, सतर्क रह सकें क्योंकि जैसे गदहे सिर्फ़ काबुल में नहीं मिलते वैसे ही तालिबानी भी सिर्फ़ काबुल तक महदूद नहीं। ये एक सोच है जिसकी सरहद नहीं। आख़िरी बात ये कि तालिबान के शासन से कौन खुश हो सकता है? संभव है कि अफ़ग़ानिस्तान में एक तबका खुश हो लेकिन सब नहीं हैं ये तय है।

जो नहीं हैं उनमें ख़ासकर महिलाएँ और अल्पसंख्यक हैं। यदि आप भारत में बैठकर तालिबानी शासन का समर्थन कर रहे हैं तो आप किसके विरोध में अपने आप खड़े हो जाते हैं ये भी देख लें। अमेरिका की हार का बहाना ना बनाएँ। ये बड़े मुल्क हैं। इन्हें फर्क नहीं पड़ता। परसों रूस था, आज अमेरिका और कल फिर चीन होगा। असल फ़र्क़ उस मुल्क के बच्चों और महिलाओं पर पड़ता है जिनके परिवार और हक इस सत्ता संघर्ष में कुचले जाते हैं।

बतौर देश भारत को तो धार्मिक कट्टरपंथी तालिबान का कोई फ़ायदा नहीं दिखता। हमने 1999 में उनका स्वाद चखा है और अब हाल में भी उन्होंने अमेरिका और तुर्की के साथ भारत का नाम ही उन मुल्कों में घुमा फिराकर लिया है जिनसे उसे समस्या लग रही है, भले ज़ाहिराना तौर पर वो जैसी मीठी गोली देते रहें। तालिबान के पास भारत से दूर रहने के पर्याप्त कारण पहले भी थे और अब भी हैं। चीन-पाकिस्तान अब इसमें इज़ाफ़ा अलग करेंगे। तालिबान पर उनके अहसान भी हैं। इस सबमें आप क्यों खुश हैं ये तो आप ही जानें। वजह अगर वही है जो आप बता नहीं पा रहे तो फिर आपको हो रही कई तरह की तकलीफ़ें पोएटिक जस्टिस समझकर सह जाइए क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान तो आप जा नहीं सकेंगे जहां 'प्रिय तालिबान' सरकार बनाने जा रहा है।

साभार – नितिन ठाकुर

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