Story:कहानी- वो नम्बर वन थी

दोस्तों कुछ किस्से ना जाने कब शुरू होते है, और कब खत्म हो जाते है, इसका कुछ पता ही चलता। दामन में कुछ धुंधली तस्वीरें और यादें ही बच जाती है। यादों के कैनवास पर धूल जमने लगती है, लेकिन कुछ रंग फीके नहीं पड़ते। मानों की उन रंगों की इबारत अभी गढ़ी गई हो और इबारत भी इतनी असरदार कि मन एक बार कह उठता है, काश! वक्त की रफ्तार में एक बैक गेयर होता, चलो बैक गेयर ना सही, कम से कम न्यूट्रल तो होना ही चाहिए।
प्रेयर बेल क्या बजी, मानों ब्लैक आउट का सायरन बज गया हो। एसेंबली ग्राउन्ड़ के अन्दर, सभी क्लासों के बच्चे, अपनी-अपनी क्लासों की लाइन में लगने के लिए इधर से उधर भाग रहे थे। कोई भी प्रेयर के लिए लेट नहीं होना चाहता था। लेट होने का मतलब था पहला पीरियड प्रिंसिपल रूम के बाहर हाथ ऊपर करके खड़ा होना। या फिर स्पोर्ट्स ग्राउंड के पाँच चक्कर, और वो भी बिना रूके, सजा में रियायत की कोई गुन्जाइश नहीं। देखो भाईया, हमें तो ना ही हाथ ऊपर करके खड़ा होने का शौक है और ना ही स्पोर्ट्स ग्राउंड के पाँच चक्कर लगाने का, हाँ एक दो बार लेट जरूर हुए है। लेकिन स्कूल की साढ़े आठ फुट की दीवार दो-तीन बार कूद चुके थे, मैं और रोहित अभी स्कूल से थोड़ी ही दूरी पर थे। हमारे कानों में भी सायरन की आव़ाज पड़ी। मेरे कहने का मतलब है, स्कूल की घन्टी, मैनें उसे जल्दी-जल्दी चलने का इशारा किया। लेकिन जनाब जल्दी चलने की बजाए, हाथ में लिए हुए बैट से चलते-चलते हवाई शॉट मारने में बिजी थे। कमबख्त ये क्रिकेट वाली लत ही बुरी है। बैग में किताबें हो या ना हो, पर हाथों में बैट या बॉल जरूर होगा। लो जी बातों-बातों में, मैं ये तो बताना भूल ही गया आखिर ये रोहित है कौन। आप लोग इनके बारे में इतना जान लीजिए शक्ल से देखने पर इनके चेहरे से मासूमियत टपकती है। पर इनके कारनामे ऐसे-ऐसे होते है, मासूमियत लफ्ज़ भी शर्मसार हो जाये। स्कूल के वॉशरूम में दीवाली पर बम फोड़ने में, स्टॉफ रूम से बहल मैम का मिठाई का डिब्बा चुराने में, इन्हीं का हाथ रहता था। और इन्हीं की मेहरबानी से जब हमारे पास बैट नहीं होता तब इलेवन्थ सी यानि की हमारी क्लास पिट्ठू- ग्राम खेलकर काम चला लेती थी। चलो जी जैसे-तैसे हम दोनों वक्त रहते प्रेयर ग्राउण्ड़ में दाखिल हुये। प्रेयर खत्म हुई। कदमताल करते हुए। सारे बच्चे एसेंबली ग्राउण्ड़ से क्लास रूम की तरफ निकल पड़े। अन्दर गैलरी में पहुँचते ही मेरे दिमाग में एक बात आई। मेरे मुँह से निकल पड़ा “अरे बाप रे” बराबर में चल रहे हरीश ने पूछा, “क्या हो गया भाई ?” मैनें कहा “आज मंडे है, और आज पहला पीरियड रेनू मैम का होता है। मैनें उनका दिया हुआ असाइनमेंट पूरा नहीं किया। आज तो सीन बनेगा और वो भी गन्दा वाला” हरीश भी घबराई हुई आवाज़ में कहता है “राम भाई सीन तो अपना भी बनेगा, मैनें भी असाइनमेंट पूरा नहीं किया” मैनें रोहित की ओर इशारा करके असाइनमेंट के बारे में पूछा। जवाब में मिला एक मुस्कुराता हुआ ना, आज तो दो ही रास्ते बचे है। शहीद हो जाओ या फिर खुद को सरेंडर कर दो। हो गई तीन-तिकाड़ा काम बिगाड़ा वाली बात। हरीश के बारे में, मैं इतना बताना चाहूँगा कि, ये बन्दा दावा करता है, ये कई सालों से जिम कर रहा है। लेकिन कोई भी बॉयो का स्टूडेन्ट इनके शरीर को दूर से ही देखकर 206 हड्डियाँ गिनकर हैंसप्रूव कह सकता है। इलेवन्थ-सी की सारी लड़कियाँ इन्हें प्यार बकरी बुलाती थी, और रही इलेवन्थ-सी की बात। पूरे स्कूल की सबसे बदनाम क्लास। प्रिंसिपल सर के मुताबिक इलेवन्थ-सी सबसे ज्यादा इनडिसीप्लीन है। पूरे स्कूल में कुछ भी गड़बड़ हो तो, सबसे पहले, हमारी क्लास पर ही छापा पड़ता था। वॉर्निग तो ना जाने कितनी बार मिल चुकी थी। पिछले हफ्ते ही, हमारी क्लास के लड़कों ने छोले-भटूरे वाले को मारा था। हमारी क्लास की मधु जिसे हम प्यार से दुर्गा भाभी कहते थे। उसका ये मानना था जिस दिन उसका वजन सात किलो घट जायेगा, उस दिन इलेवन्थ-सी भी सुधर जायेगी। खैर दोनों ही बातें कभी पूरी नहीं हुई। ना तो मधु का वजन घटा और ना ही कभी इलेवन्थ-सी सुधरी। उस दिन रेनू मैम ने हमें असाइनमेंट के लिए बख्श दिया। चलो जी, एक मुसीबत तो खत्म हुई। पर एक दूसरी मुसीबत आने वाली थी। मेरी नहीं रोहित की लाइफ में।
अगले दिन हम दोनों स्कूल के लिए वक्त से पहले ही निकल पड़े थे। इसलिए लेट होने का कोई सवाल ही नहीं था। बकैती करते हुए रास्ता कब कट गया पता ही नहीं चला। स्कूल के गेट के पास पहुँचते ही रोहित के कदम थम से गये। उसकी नज़र एक लड़की पर जा टिकी जो गमले के पास बैठी, अपनी सहेली से बातें कर रही थी। उसके चेहरे की रंगत ऐसी थी मानों गुलाब की पंखुड़ियों पर किसी ने दूध की कुछ बून्दें ड़ाल दी हो। उसकी पलकें ऐसे झपक रही थी, जैसे कोई सजदा कर रहा हो। उसका चेहरा देखकर ऐसा लगता था कि हजारों लोगों कि दुआयें एक साथ कबूल हो गई हो। उसे देखकर कोई शायर कह सकता था “ना जाने कैसा था, उन आँखों का सुरूर, काफिरों को भी इबादत का सलीका आ गया” ऐसा मेरा नहीं रोहित का मानना था। मैं उसके दिमाग उठने वाले, इस सैलाब से अन्जान था। मैं जबरदस्ती रोहित का हाथ खींचकर स्कूल के गेट के अन्दर ले आया। प्रेयर के लिए लाइन लगनी शुरू हो चुकी थी। रोहित ने लाइन में लगने के लिए हरीश को धक्का देकर बाहर निकाल दिया, और उसकी जगह खुद लग गया। हरीश को धक्का देने की वजह जो मुझे अब समझ में आयी है। वो ये है कि उसके ठीक बराबर वाली लाइन में वो लड़की खड़ी थी। इसके साथ ही ये बात भी कान्फर्म हो गयी थी, कि वो लड़की ट्वेलथ क्लास की थी। क्योंकि वो ट्वेलथ क्लास की लाइन में खड़ी थी, प्रेयर शुरू हो गई थी। सभी आँखें बन्द किये हाथ जोड़े प्रार्थना कर रहे थे। रोहित बीच-बीच में आँखें खोलकर, उसे देख लेता था। ना जाने कितनी बार, उसने उस लड़की को देखा। और वो लड़की इस बात से अन्जान, आँखें बन्द किये। प्रेयर कर रही थी। प्रेयर खत्म हुई, प्रिंसिपल सर सारे स्टूडेंट्स को एड्रेस कर रहे थे। इसी बीच रोहित रह-रहकर एकाध बार उस लड़की को तिरछी निगाहों से देख लेता था। इतनें में ही उसकी इस हरकत को फिजिक्स वाले सर देख लेते है। जैसे ही फिजिक्स वाले सर और उसकी नज़रे एक हुई तो रोहित को ये बात समझ में आ जाती है कि उसकी ये हरकत फिजिक्स वाले सर नोटिस कर चुके है। रोहित एक बार फिर चेहरे पर मासूमियत ओढ़कर जमीन पर पड़ी मिट्टी पर उंगलियाँ फिराकर कुछ लिखने का नाटक करने लगता है। हमें मेरा मतलब हैं कि मुझे और पूरी इलेवन्थ-सी को समझ में नहीं आ रहा था कि, रोहित के बिहेवियर में इतना चेंज क्यों आ गया है। रिसेस में वो हमारे साथ लन्च करने नहीं आया। हर बार बैंटिग के लिए लड़ने वाले ने आज एक बार भी बल्ले की तरफ देखा भी नहीं। दोपहर को स्कूल खत्म होने के बाद बकरी और राजेश ने पीछे वाले पार्क में वालीबॉल खेलने का प्रोग्राम बनाया। मैनें हाँ कह दिया पर रोहित ने कुछ नहीं कहा। शाम को मैं पीछे वाले पार्क में पहुँचा और हमने जमकर खेला। सिवाय रोहित के रह-रहकर मेरे दिमाग में एक ही बात आ रही थी। आखिर इस लड़के को हुआ क्या है ?, शाम को पार्क से लौटते वक्त मैं ये ठान चुका था। रोहित के घर चला जाए और पता किया जाए। अखिरी मज़ारा क्या है? पहुँच गया उसके घर इतनी हड़बड़ी में था कि, मेरे पाँव से उसके घर का एक गमला टूटते-टूटते बचा। डोरवेल बजाई अगले ही पल आँटी दरवाजे पर खड़ी थी। उन्होने कहा “अरे राम बेटा आओ, अन्दर आओ” मैनें कहा “नहीं-नहीं आंटी, अभी कुछ काम है फिर कभी फुर्सत में आऊँगा रोहित को भेज दो, कुछ पूछना है उससे” आंटी चेहरे पर मुस्कुराहट बिखेरते हुए कहती है “ठीक है, अभी उसे नीचे भेजती हूँ” कुछ देर में वो मेरे सामने खड़ा था। मैनें उसे कहा “चलो मंगल बाज़ार घूमने चलते है”, थोड़ा आनाकानी करने के बाद वो मान गया लेकिन बड़ी अजीब बात थी। आज से पहले ऐसा तो नहीं होता था रोहित खुद मंगल बाज़ार घूमने के लिए फोन करके बुलाता था। ना जाने क्यूँ ऐसा लग रहा था वो मेरे साथ होकर भी साथ नहीं है। रिक्शों की घंटियो की आवाज़, कम्पनी का प्रचार, सौ के चार से गला फाड़ते सैल्समेन, शाही ईदगाह से आती अजान, छह टूटी चौक की जलेबियाँ, हाथों पर मेहन्दी लगवाती हुई लड़कियाँ और गोलगप्पे खाती हुई आंटियों की भीड़ बाज़ार की ये सारी चहल-पहल भी उसका ध्यान नहीं खींच पा रही थी। खैर जो भी हो हम बाज़ार से लौट आये वो अपने घर निकल गया और मैं अपने। रात को बिस्तर पर लेटे-लेटे मैं ये सोच रहा था, कुछ तो है, जो मेरी समझ में नहीं आ रहा है। खैर वो रात तो गुजर मेरे लिए गुजर गई, पर आने वक्त, ना जाने रोहित लिए क्या गुल खिलाने वाला था।
अगले दिन सुबह मैं स्कूल जल्दी पहुँच गया और जल्दी भी इतनी कि, लन्च बॉक्स और बैट ले जाना भूल गया। उस दिन एकदम फुल जासूसी के मूड में था। मेरे अन्दर का व्योमकेश बक्शी कह रहा था कि “राम आज, इस बात का पर्दाफाश करना है, आखिर ये गुमसुम सा क्यों रहता” लेकिन फिर भी मेरी हिम्मत रोहित से पूछने की नही हुई “भई तुझे हुआ क्या”, तीसरे पीरियड की बेल बज चुकी थी। क्लास में कोई टीचर ना था इतने में ही, हमारी क्लास का धर्मऩाथ भागता हुआ हमारे पास आया और हमसे बोला “यार आज एक बहोत ही प्यारी लड़की देखी, अभी कॉरिडोर में जाते हुए देखा है उसे” मैं और रोहित क्लास के गेट पर खड़े होकर कॉरिडोर की तरफ देखने लगे, इतनें में ही वो नज़र आई, लैब कोट पहने हुए, वो कहते हैं ना, इश्क और मुश्क छुपाए नहीं छुपता रोहित ने सारी क्लास के सामने धर्मनाथ का कॉलर पकड़कर कहा “आइन्दा उस लड़की के बारे में, फालतू मत बोलियो” लो जी हो गया नया बखेड़ा खड़ा, पूरी क्लास में हवा फैल गई। जनाब एक लड़की को पसन्द करने लगे है। पूरी क्लास में, कोई भी उस लड़की का नाम नहीं जानता था। अब नामकरण संस्कार भी हो गया। उस अन्जान का नाम पड़ गया नम्बर-वन, नम्बर-वन इसलिए क्योंकि उस जैसी लड़की पूरे स्कूल कोई और ना थी। अब इस मामले में हमारे क्लास की लड़कियाँ पीछे कहाँ रहने वाली थी। अजी मिल गया मौका रोहित की टाँग खींचने का। हमारी क्लास की मधु रोहित को नम्बर-वन – नम्बर-वन कहकर चिढ़ाने लगी। क्लास के लड़के रिसेस पीरियड में जब भी नम्बर-वन स्पोर्टस ग्राउण्ड़ के आसपास होती थी। तो उसे इम्प्रेस करने के लिए फुटबॉल पर तरह-तरह की किक आजमाते थे। नम्बर-वन के साथ हमेशा उसकी एक सहेली रहती थी। हमें उसका नाम भी नहीं पता था। उसकी आँखे भूरी थी। इसलिए हम उसे भूरी आँखों वाली कहते थे। अरे हाँ एक बात और रिसेस पीरियड ओवर होने के बाद रोहित रोजाना वॉटर-कूलर के पास आकर खड़ा हो जाता था। पानी-पीने के लिए नहीं, बल्कि नम्बर-वन को देखने के लिए क्योंकि वो जानता था। रिसेस ओवर होने पर हर कोई पानी-पीने के लिए आता था और वो भी आयेगी। होता भी यहीं था, और हम दोस्ती का फर्ज अदा करने के लिए, जनाब के पीछे लग लेते थे। नौबत तो यहाँ तक आ गई थी। जब नम्बर-वन हमारे आस-पास होती तो हमारे क्लास के सारे यार हूटिंग करते थे, तालियाँ बजाते थे, मानों कोई सिलेब्रिटी आ गया हो। इस बात पर उसने कभी ध्यान नहीं दिया। एक दिन तो हद ही हो गई ना जाने कहाँ से रोहित को पता चल गया कि वो कैमिस्ट्री लैब में है। बस फिर क्या था। जनाब दीदार के लिए चल पड़े पीछे-पीछे हम भी चल पड़े। रोहित कैमिस्ट्री लैब के दरवाज़े के पीछे छुपकर उसे देखने लगा। लैब कोट पहने हुए हाथों में टेस्ट-ट्यूब लिए हुए रोहित से ज्यादा अच्छी किस्मत तो उस टेस्ट-ट्यूब की थी। जो उसके इतने करीब थी। वो प्रैक्टिकल कर रही थी और ये जनाब इश्क की थ्योरी में ही उलझे पड़े थे। इतनी खूबसूरत लड़की ना जाने कैसे कैमिस्ट्री जैसे बोरिंग सब्जेक्ट को झेलती होगी। इतनें में ही ना जाने कब। पीछे आकर से कैमिस्ट्री वाले सर ने हमें पकड़ लिया और यूं कान मरोड़े-यूं मरोड़े आज भी सोचकर दर्द ताजा हो जाता है। उस दिन हमें पता लगा दर्द-ए-इश्क क्या होता है और हम दोनों पर इल्जाम लगा। पीरियड़ बंक करने का शुक्र है, किसी ने ये नहीं कहा कि दोनों छुपकर लड़की को देख रहे थे। जो हुआ ठीक ही था, पर आगे क्या।
मुझे आज भी याद है, वो पाँच सितम्बर का दिन टीचरस् डे था। सारे ट्वेलथ वाले टीचर बने थे। वो भी टीचर बनी थी। साड़ी पहने हुए थी पर इस बात को लेकर आज भी रोहित और मेरे बीच बहस होती है कि, उसने लाल रंग की साड़ी पहनी थी या काले रंग की। उस दिन वो ऐसी लग रही थी जिसे शायद ही मैं लफ्जों में बयां कर सकूं। खैर जो भी हो। मैं ऑडिटोरियम को सजाने में बिजी था। स्कूल की सबसे इनडिसीप्लीन क्लास को, उस दिन यहीं काम सौंपा गया था। सैकेण्ड़ हॉफ में क्लचरल् प्रोग्राम था। इतने में ही रोहित मेरे पीछे आया और मुझे जबरदस्ती खींचकर ऑडिटोरियम से बाहर ले गया। मैनें झुझंलाते हुए कहा “हाँ भई क्या बात है” उसने क्लास ब्लॉक की तरफ इशारा किया। मैंने उस तरफ देखा तो पाया कि, छोटी क्लास के बच्चों ने नम्बर-वन और भूरी आँखों वाली को घेर रखा था। वो उससे ऑटोग्रॉफ ले रहे थे। मुझे भी रोहित ने ऑटोग्रॉफ लेने के लिए कहा पहले तो मैं थोड़ा हिचकिचाया और ना-नुकूर करने लगा। रोहित ने कहा “बस दोस्त के लिए इतना नहीं करेगा” बस इतना सुनना था, मैंने मन ही मन में कहा ‘क्या बात कर दी यार तूने, कह दिया बस काफी है। आज ऑटोग्रॉफ तो क्या, तेरे लिए ऐवरेस्ट फतह कर लेगें’ हम भी अपनी समझदारी दिखाते हुए। बेवकूफी कर बैठे और पहुँच गये नम्बर-वन के पास। अजी ऑटोग्रॉफ जो लेना था। मैनें उसके सामने पेपर बढ़ाया ऑटोग्रॉफ लेने के लिए। इलेवन्थ क्लास के बच्चे यानि कि मुझे ऑटोग्रॉफ देते हुए वो बोली “ये तो बच्चे है, पर आप” मैं चेहरे पर बेचारगी वाली मुस्कान ले आया। उसने कागज पर मैसेज लिखकर, ऑटोग्रॉफ दे दिये। मुझे ऐसा महसूस हो रहा था। मानों छह बॉलों पर छह छक्के मार दिये हो। मैं कागज खोलकर उसका मैसेज पढ़ ही रहा था कि, इतने में ही ना जाने कहाँ से बकरी राजेश और धर्मनाथ आ टपके शायद उन्होनें मुझे नम्बर-वन से ऑटोग्रॉफ लेते हुए देख लिया था। और मेरे हाथ से वो कागज छीन लिया। मैं भी उनसे वो कागज छीनने लगा। ये देखकर रोहित भी वहाँ पर आ गया। छीनाझपटी में कागज फट गया। शुक्र है उस दिन रोहित की उनसे लड़ाई नहीं हुई सैकेण्ड़ हॉफ में हम सब ऑडिटोरियम में बैठे हुए थे। कल्चरल् प्रोग्राम चल रहा था। सबका ध्यान स्टेज की तरफ था। लेकिन रोहित का ध्यान नम्बर-वन की ओर। उसको देखने के चक्कर में एक पल ऐसा भी आया। जब दोनों की नज़रें एक हो गई। रोहित ने तुरन्त अपनी नज़रे झुका ली। रोहित नम्बर-वन से कहना तो बहुत कुछ चाहता था। लेकिन कहने के ख्याल भर से ही उसके पसीने छूटने लगते थे। जब भी नम्बर-वन रोहित के आस-पास होती तो उसके होंठ सिल से जाते थे। पाँव काँपने लगते थे। वो अपने दिल की बात उससे कहना चाहता था। सैकेण्ड़ टर्म खत्म हो गया। लेकिन फाइनल एक्जाम से पहले, क्या वो अपने दिल की बात, उससे कह पाएगा ?

अब तो हद की हद हो रही थी एक वो अन्जान थी। उसके पीछे रोहित को, क्या कुछ सहना पड रहा था। क्लास की कमेंटबाजी आशिक मजनूं जैसी उपाधियाँ ऐसे ही ना जाने और क्या-क्या। फाइनल टर्म के एक्जाम नजदीक आने वाले थे। मेरा ज्यादातर वक्त एसाइनमेंट जमा करवाने और एक्जाम की प्रिपेजशन में निकलने लगा और रोहित का वक्त नम्बर-वन के ख्यालों में गुजरने लगा। पढ़ाई के लेकर वो थोड़ा लापरवाह सा हो गया था। एक दिन छुट्टी के बाद मैं और रोहित उसकी क्लास में घुस गये। रोहित नम्बर-वन के डेस्क की ओर बढ़ा और उसके डेस्क को छूने लगा, महसूस करने लगा। उस अनोखी छुअन को। शायद मन में ये सोचते हुए कि, वो इस डेस्क पर बैठती है। ये दरवाज़ा रोज उसके आने-जाने का गवाह बनता है। इस ब्लैक-बोर्ड पर वो कैमिकल इक्वेशन सॉल्व करती होगी। इतने में ही रोहित ने ब्लैक –बोर्ड पर लिखा हुआ डस्टर से मिटाया और चॉक से नम्बर-वन प्लस रोहित लिख दिया। वक्त अपनी जगह था और हम अपनी जगह, फाइनल एक्जाम पास आ गये थे। घर से ट्यूशन और ट्यूशन से घर क्वेश्चन पेपर, आंसर की में, मैं उलझा ही रह गया। पास भी होना जरूरी था। अगली क्लास में जाना था, लो जी जैसे-तैसे एक्जाम भी ठीक-ठाक निकल गये। मजे की बात तो ये थी हमारी क्लास के सारे नालायक बच्चे भी पास हो गये थे। बस स्कूल जाकर रिपोर्ट कॉर्ड कलेक्ट करना बाकी रह गया था। मार्च का आखिरी हफ्ता था। अच्छी-खासी धूप निकली हुई थी। स्कूल में घुसते ही, मुझे अपनी क्लास के सारे दोस्त हँसते खिलखिलाते, चहकते दिखे। हम सब एक-दूसरे को गले लगकर बधाई दे रहे थे। तभी मेरी नज़र गमलों के बीच में बैठे एक सिर झुकाये बन्दे पर पड़ी। ध्यान से देखने पर पता लगा कि, वो रोहित था। मैं खुशी के साथ उसकी ओर बढ़ा बधाई देने के लिए। मैं जैसे ही उसके पास पहुँचा। उसने नज़रे ऊपर की उसकी आँखों के जज्बात झलक पड़े। उसने कहा “राम वो स्कूल से, पास आउट हो गयी है, अब मैं उसे कभी नहीं देख पाऊँगा” उस दिन मैंने किसी तरह रोहित को संभाला। आज इस बात को बीस साल से ऊपर हो गये है। आज तक नम्बर वन हमें कहीं नहीं दिखाई दी। पर उससे जुड़ी यादें, रोहित के दिल में आज भी तरो-ताजा है। और मेरे भी क्योंकि मैं उन पाक लम्हों का गवाह था। भले ही रोहित नम्बर-वन से कभी मिला ना हो। और कभी उसने उससे कुछ कहा ना हो लेकिन आज भी उसका मासूम चेहरा हमारे जहन् में अपनापन लिए हुए है। बस इतनी सी थी ये कहानी।

अरे हाँ, दो बातें तो मैं बताना ही भूल गया। पहली बात ये कि, हमारी क्लास की मधु उर्फ दुर्गा भाभी एक प्यारे से बेटे की मम्मा है।

दूसरी बात ये कि नम्बर-वन का असली नाम दिव्यांशी है। टीचरस् डे वाले दिन मैनें जब नम्बर-वन से ऑटोग्रॉफ लिये थे। उसने अपना यहीं नाम लिखा था। आज भी स्कूल का कोई दोस्त मिलता हैं तो रोहित से नम्बर-वन के बारे में पूछता है। आज भी हमारी क्लास वाले उसे नम्बर-वन नाम से जानते है। वो कहाँ है इसका तो हमें पता नहीं। लेकिन आज भी एक जोगी उसके नाम की धूनी रमाये बैठा है।
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