राम-राम और जय श्री राम के बीच दूरी

राम नाम की यात्रा जनवाद से विषबुझी सियासी जमीं की ओर


देश की मौजूदा नस्लें ऐतिहासिक क्षण की गवाह बनने जा रही है। हमने देखा किस तरह से ट्रिपल तलाक और धारा-370 जैसी चीज़े इतिहास की किताबों में दफ़्न हो गयी। अगला मील का पत्थर राम मंदिर का फैसला होगा। जाहिर तौर पर सुप्रीम कोर्ट की न्यायिक बेंच का बहुप्रतीक्षित निर्णय एक वर्ग के पक्ष में आयेगा। और दूसरा वर्ग इससे नाखुश होगा। लेकिन इन सबके बीच एक सवाल उभरता है, क्या आपने राम को अच्छे से समझा। हमारे देश में भगवान राम आस्था के केन्द्र में निहित है। खासतौर से उत्तर भारत में राम के प्रति लोगों का विशेष अनुराग है। अपनी-अपनी आस्था और विश्वास के आधार लोगों ने राम को परिभाषित किया है। कबीर के राम निर्गुण है। तुलसी के राम पुरूषोत्तम और आदर्शवाद की पराकाष्ठा है। श्री गुरूनानक के राम कालखंड की सीमाओं से परे सर्वज्ञ सर्वव्याप्त है। महार्षि बाल्मीकि के लिए वे बेहतरीन राजा है। एक विशेष वर्ग के लिए शंबूक का वध करने वाले मनुवाद से परिपूर्ण प्रशासक है। कुल मिलाकर ये है कि राम भारतीय समाज में इस कदर रचे बसे हुए है कि हिन्दू अपने बच्चों के नाम में राम शब्द जोड़ना ज़्यादा पसन्द करते है, ताकि बच्चे का नाम पुकारने से ही भगवद्भक्ति का लाभ मिल सके। अगर आप लोगों में से किसी का अवधी क्षेत्र में जाना हुआ हो तो, आप देखेंगे कि वहाँ नाम रखने की कुछ इस तरह की परिपाटी है जैसे रामखिलावन, रामलवट, रामचरण, रामनयन, रामआसरे, रामकिशोर, रामधारी इत्यादि। अब इस परिपाटी में थोड़ा बदलाव आया है लोग फिल्म और टीवी सीरियल से प्रेरित नाम रखने लग गये है। अवधी इलाके के राम जनवादी है। आज भी उत्तर भारत में राम-राम करना आम अभिवादन का हिस्सा है। ये इतना आम है कि मुस्लिम भी राम-राम करते मिल जाये तो आश्चर्य नहीं होगा। 

अब ये सवाल ये उठता है कि राम को जनवाद की दहलीज़ से निकालकर विषभरी राजनीति के केन्द्र में किसने डाल दिया। इसके लिए हमें तारीखों के पन्ने पलटने होगें। ये बात सभी लोग अच्छे से जानते है कि इस्लाम भारत में आयातित धर्म के तौर पर पनपा। भारत में अधिकांश इस्लाम के अनुयायी धर्मान्तरित है चाहे स्वेच्छा से हो या अन्य कारणों से। साल 1526 में भारतभूमि पर बाबर नाम का अक्रान्ता आता है। काफी निर्दयता से लोगों को मारता-कुचलता, मंदिरों को गिराता, भगवान के विग्रहों को खंडित करता है। क्योंकि इस्लाम में बुतपरस्ती हराम मानी जाती है तो इस वज़ह उसे ये सब करने में कोई हिचकिचाहट नहीं होती है। इस तरह वो राम मंदिर को ध्वस्त करके उसकी जगह पर मस्जिद बना देता है। उसके बाद किसी तरह सामाजिक सौहार्द का ढ़ांचा धीरे-धीरे फिर संभलता है। एक नयी गंगा-जमुनी तहजीब वजूद में आती है। 1857 में हुए स्वाधीनता संग्राम का करारा तम़ाचा अंग्रेजों के मुँह पर पड़ता है। जिससे उन्हें ये सब़क मिलता है कि अगर राज करना है तो हिन्दू मुसलमानों को बांटकर रखो। जिसके चलते राम मंदिर मसले को ज्यौं का त्यौं बनाये रखा गया, वरना ये मसला ब्रिटिश राज में ही सुलझा लिया गया होता। लेकिन दिलचस्प ये रहा कि आज़ादी की लड़ाई के दौरान राम मंदिर कभी दोनों समुदायों के बीच टूट और बिखराव का मुद्दा रहा ही नहीं। देश आजाद हुआ अब मौका था बाबर की गलती को न्यायपालिका में चुनौती देने का। सुनवाइयों और दलीलों का दौर बेहद अच्छे से चल रहा था। 25 सितम्बर 1990 को कुछ ऐसा हुआ कि राम-राम, जय श्री राम में तब्दील हो गया। लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी रथ यात्रा से एक नया राजनैतिक प्रयोग शुरू किया। सियासी ख़्वाहिशों को तलाशते हुए राजनीति और रामलला को मिलाकर देश की सर्वोच्च सत्ता हासिल करने का नया फॉर्मूला इज़ाद किया। जहाँ पहले राम-राम का उच्चारण जनवादी और गंगा जमुनी तहज़ीब का परिचायक था। वहीं इस विषबुझे राजनैतिक प्रयोग के बाद जय श्री राम का घोष कहीं ना कहीं राजनैतिक उन्माद का प्रतीक बन गया। ये फॉर्मूला अजेय था। जिसके चलते कामयाबी भी मिली। 6 सितम्बर 1992 को बाबर द्वारा की गयी गलती को दोहरा गया। न्यायालय में विचाराधीन विवादित ढ़ांचे को बाहरी लोगों ने ध्वस्त कर दिया। जिस तरह से बाबर की राम और राम मंदिर में कोई आस्था नहीं थी, ठीक उसी तरह इन कथित कार सेवकों (राजनैतिक दुष्प्रचार से प्रेरित प्रायोजित उन्मादी भीड़) की न्यायपालिका और उसकी प्रक्रिया में कोई आस्था नहीं थी। ये लोग पूरी तरह से बाहरी थे, क्योंकि बाबरी ढ़हने के बाद अवध के मुस्लिम बहुल इलाकों में किसी तरह का कोई साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ। फैजाबाद, बाराबंकी, अकबरपुर, बसखारी, आज़मगढ़, जहांगीरगंज, रूदौली, गोसांईंगंज जैसे इलाकों में शांति बनी रही है। जबकि कायदे से राम मंदिर और राम के प्रति आस्था, विश्वास और स्थान के अनुसार ज़्यादा संवदेनशीलता इन्हीं इलाकों में है। अगर इस तस्वीर को गौर से देखे तो गलती दोनों पक्षों की बराबर है। एक तरफ मुस्लिम पक्ष है, जो बाबर की विदेशी अक्रान्ता वाली और हिंसात्मक विरासत को बाबरी मस्जिद के तौर पर ढो रहा है। दूसरी ओर हिन्दू पक्ष है, जिसने भगवान राम को सियासत के सांचे में ढालकर बहुसंख्यक वाली राजनीति करके वोट दूहे। इस पूरे विर्मश को सहजता से समझने के लिए ये दो तस्वीरे काफी है। हमारे यहाँ ईद की राम-राम भी की जाती है।

वहीं ये दूसरी तस्वीर है भगवान राम की। हमारे देश में बाल्मीकिकृत रामायण और तुलसीकृत रामचरितमानस के अतिरिक्त अन्य कई और रामायण लिखी गयी है। थोड़े बहुत फेरबदल के साथ हर संस्करण में राम के प्रति सामान्य गुणधर्म ये है कि वे विनयशील, सहज, सौम्य, क्षमाशील,धीर-वीर है। लेकिन राजनीति ऐसी जहरीली चीज़ है, जिसके चलते मजबूरन एक खास जमात को भगवान राम की ऐसी छवि बनानी पड़ी, जिसमें वे शस्त्रधारण किये हुए आक्रामक मुद्रा में नज़र आ रहे है। भगवान राम की ये छवि पॉलिटिकल माइलेज देने वाली थी। अगली बार से जब राम-राम कहियेगा या जब आपको जय श्री राम सुनाई देगा तो इसके बीच अन्तर जरूर समझने की कोशिश जरूर कीजिएगा।

        राम अजोर यादव
एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर एवं सह संपादक ट्रेन्डी न्यूज़
Leave a comment

This website uses cookies to improve your experience. We'll assume you're ok with this, but you can opt-out if you wish. Accept Read More